BOLLYWOOD AAJKAL

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Sunday, May 22, 2016

मुंबई रात की बाँहों में ………



न्यूआर्क और पेरिस के बाद मुंबई की रातें मशहूर रही हैं। कहा जाता है कि जब पूरा इंडिया सोता है तब मुंबई की रातें जवां होती है। दिन की रौशनी में मुंबई आदमियों से भरे मशीनों के शहर की तरह नज़र आती  है। जहाँ हर किसी को कहीं - न -कहीं पहुँचने की जबरदस्त जल्दबाजी है। लेकिन शाम उतरते ही शहर के सीने पर पसरती चकाचौध के साथ ही मुंबई मशीनी चोला उतारकर ख्वाहिशों ,जज़्बातों और सपनों की दौड़ में शामिल हो जाती है। मुंबई सपनों का भी शहर है। हर किसी के सपने हैं और हर सपने की कीमत भी है। किसी का सपना ज़िंदगी को जीवंत बनाने का है तो कोई रातो-रात दौलत के ढेर पर बैठने का ख्वाब पाले हुए हैं। इनमें से अधिकाँश ख़्वाबों को मंज़िल रात में ही मिलती है। कम -से -कम आंकड़े तो यही साबित करते हैं।बहरहाल  हालिया राजनैतिक सरगर्मी मुंबई की नाईट लाइफ को फिर से जीवंत बनाने  की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। लेकिन बॉलीवुड ने कई दशक पहले ही मुंबई के नाइट लाइफ की तस्वीर को पेश करना शुरू कर दिया था। फिल्मों में मुंबई एक रात में ही अपने पूरे चरित्र की पूरी खूबियों और खामियों के साथ पेश होती रही है। आइए डालते हैं उन फिल्मों पर एक नज़र जिसने मुंबई में होने वाले रात की कारगुजारियों को बेलौस और बेबाक तरीके से सेल्युलाइड पर उतारकर मुंबई को समझने और महसूस करने का एक नया नजरिया पेश किया। 

                                  1968 में आई ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म मुंबई रात की बाँहों में "में पहली बार मुंबई शहर का स्याह चेहरा सामने आया। इस सस्पेंस थ्रिल्लर फिल्म में रात के अँधेरे में घटित होने वाले अपराधों को पेश किया गया था। इस कहानी के द्वारा अब्बास साहब ने समाजवाद के प्रति बढ़ते मोहभंग और उससे उपजी नयी परिस्थियों को कहने का प्रयास किया था। सीधे तौर पर फिल्म का मुंबई के चरित्र से कोई सम्बन्ध नहीं था लेकिन मुंबई को एक मानक के रूप में गढ़ते हुए कहानी का ताना-बाना बुना गया था। जागते रहो, अनोखी रात और माय फ्रेंड पिंटो में एक रात के दौरान दुनिया अपनी हकीकत में खुलती है। रात के अँधेरे में किस तरह इंसान अपने असली रूप में प्रकट होता है, ये इन फिल्मों में नजर आता है। असल में इन तीनों फिल्मों का नजरिया बहुत हद तक दार्शनिक टच लिए हुए है। राज कपूर की जागते रहो और संजीव कुमार अभिनीत अनोखी रात का दर्शन बहुत कुछ एक ही सा है।1988 में मीरा नायर ने मुंबई को एक नए नजरिये से पेश किया। इस फिल्म में समाज में बढ़ती आर्थिक असामनता से उपजे परिवेश को बच्चों के माध्यम से काफी सशक्त तरीके से पेश किया गया था। हालांकि इस फिल्म में पूरी मुंबई का मिजाज उभर नहीं पाया लेकिन सलाम बॉम्बे ने भविष्य के मुंबई की तस्वीर तो पेश कर ही दिया। मुंबई की रातों के पूरे सच को किसी एक फिल्म में समेट पाना संभव भी नहीं है। क्यूंकि एक ही रात में मुंबई कई चोला बदल लेती है। इस नजरिये से देखें तो साल २००४ में आई अभय देओल की फिल्म एक चालीस की लास्ट लोकल मुंबई के नाईट लाइफ के काफी करीब नज़र आती है। बारों की रौनक ,क्राइम ,ह्त्या,देह व्यापार ,स्मगलिंग -ये सब भी मुंबई की रातों का ही सच है। इस फिल्म में इस विषय को काफी धारदार तरीके से कहानी का हिस्सा बनाया गया है। इसी कड़ी में मधुर भंडारकर की चांदनी बार ,कैजाद गुस्ताद की मुंबई बॉयज आदि जैसी फिल्मों को भी रखा जा सकता है। अजय देवगन की वंस अपन ए टाइम इन मुंबई ,हंसल मेहता की सिटी लाइट जैसी फ़िल्में भी मुंबई के रातों की हकीकत बयान करती है। राज कपूर की जागते रहो और संजीव कुमार अभिनीत अनोखी रात का दर्शन बहुत कुछ एक ही सा है। प्रतीक बब्बर अभिनीत माय फ्रेंड पिंटो एक मनोरंजक फिल्म है, लेकिन इसमें भी रात के अँधेरे में खुलती दुनियादारी दिखाना ही निर्देशक का लक्ष्य रहा है। 

 अनुराग बासु की फिल्म लाइफ इन मेट्रो। …। में भी मुंबई रातों के सच को संजीदगी से पेश किया गया। चार किरदारों की समानांतर चलती चार कहानियों के द्वारा बासु ने मुम्बईया रातों के नब्ज़ को टटोलने की भी कोशिश की ये अलग बात है कि इसके केंद्र में आपसी रिश्ते थे। स्लमडॉग मिलेनियर में डेनी बॉयल ने मुंबई की रातों का काफी भयावह पहलु पेश किया था। इस फिल्म के बाद डेनी ने मुंबई की नाइटलाइफ़ पर एक फिल्म बनाने का एलान किया था लेकिन अब तक इस पर काम शुरू नहीं हुआ है। लेडीज बारों पर ढोबले की छापेमारी और मॉरल पॉलिशिंग से प्रेरित होकर परेश मेहता ने "डी सैटर्डे नाईट " से एक फिल्म बनायी है जो 21 फरवरी को रिलीज होने जा रही है। इस फिल्म में बारों में होने वाले जवां मुहब्बत और जिस्मफरोशी के खिलाफ कानूनी पेंच को दर्शकों के सामने लाया जाएगा। 

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