BOLLYWOOD AAJKAL

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Friday, November 9, 2012

“गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो”

ह बहुत पुराना तो नहीं है, लेकिन दस्‍तावेजी है, क्‍योंकि इसके पन्‍ने पीले पड़ चुके हैं। भोजपुरी फिल्‍मों का बाजार तो बन गया है, लेकिन जैसा कि समय के दस्‍तावेजीकरण का दुख सब जगह पसरा हुआ है, भोजपुरी भी इससे अछूता नहीं है। कुछ समय पहले वरिष्‍ठ सिने पत्रकार अजय ब्रह्मात्‍मज ने अपने फेसबुक पर भोजपुरी के पहले सिनेमा की कहानी का यह पहला पन्‍ना जारी किया था। उनकी टिप्‍पणी थी…

कल भोजपुरी के मौखिक इतिहासकार आलोक रंजन के साथ बैठक हुई। पच्‍चीस साल पहले उनके लिखे एक पायनियर लेख का पहला पृष्‍ठ… क्‍या आप नहीं चाहेंगे कि वे भोजपुरी फिल्‍मों का कालक्रमिक इतिहास लिखें? प्‍लीज, उनसे आग्रह करें कि वे इस इतिहास को लिपिबद्ध करें।
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आलोक जी इतिहास तो जरूर लिखें, लेकिन आप
1987, यानी भोजपुरी फिल्‍मों का रजत जयंती वर्ष। 24 वर्षों की एक लंबी और संघर्षपूर्ण यात्रा तय करने के बाद भोजपुरी फिल्‍में आज उस सुखद ऐतिहासिक स्थिति में पहुंच गयी है, जहां उसके सांस्‍कृतिक अस्तित्‍व और व्‍यावसायिक महत्‍व से कोई इनकार नहीं कर सकता। लेकिन इसी फिल्‍म महानगरी में पांचवें दशक के अंत तक किसी को इस बात का यकीन नहीं था कि उत्तर पूर्व भारत की इस लोकप्रिय बोली में कभी किसी फिल्‍म का निर्माण भी किया जा सकता है। इस शंका और अविश्‍वास के पीछे मूल रूप से यही धारणा काम कर रही थी कि भोजपुरी एक ऐसी ग्रामीण बोली है, जो लोकगीतों और धुनों के लिहाज से तो बेशक समृद्ध है, परंतु, सामाजिक संदर्भ में बातचीत के दौरान जिसका इस्तेमाल व्‍यक्ति को फूहड़ और गंवार ही जाहिर करता है। भोजपुरी की सांस्‍कृतिक परंपराओं एवं इसके प्रकाशित साहित्‍य से अनजान होने की अज्ञानता इस अधकचरी जानकारी की मूल वजह थी। उस वक्‍त किसी से भोजपुरी फिल्‍म निर्माण की संभावना पर विचार करने कहना भी एक तरह से अपना माखौल उड़वाना ही था। इसलिए वैसी प्रतिकूल परिस्थितियों में इस नयी भाषा में फिल्‍म बनाने की कोशिश वही शख्‍स कर सकता था, जिसे एक तरफ जहां इसकी संस्‍कृति और परंपरा से गहरा लगाव हो, वहीं दूसरी ओर इसके परिवेश और संस्‍कारों के साथ उसकी गहरी आत्‍मीयता भी हो। सौभाग्‍य से हिंदी फिल्‍मोद्योग में तब तक कुछ ऐसी प्रतिभाओं ने अपनी पुख्‍ता पहचान बना ली थी। ऐसे लोगों में सर्वाध‍िक चर्चित व्‍यक्तित्‍व था, गाजीपुर निवासी नजीर हुसैन का। वे सिर से पांव तक भोजपुरी के संस्‍कारशील रंगों में रंगे हुए थे। भोजपुरी उनकी मातृभाषा थी और उन्‍हें अपनी इस बोली तथा इसकी सांस्‍कृतिक परंपराओं से वैसा ही सच्‍चा, गहरा लगाव था, जैसा मां-बेटे के पवित्र, नि:स्‍वार्थ संबंध में होता है।
जद्दनबाई की दस्‍तक
यों, ऐतिहासिक तथ्‍यों की दृष्टि से भोजपुरी फिल्‍म का ख्‍याल सबसे पहले जिसके जहन में आया, वह शख्‍सीयत थी अपने वक्‍त की अजीम फिल्‍मी हस्‍ती और मशहूर अदाकारा नरगिस की मां जद्दनबाई। हिंदी फिल्‍मों में पूरबी गीत-संगीत तथा संवादों के व्‍यावसायिक इस्‍तेमाल और राष्‍ट्रीय स्‍तर पर व्‍याप्‍त इसकी लोकप्रियता ने जद्दनबाई के दिल में यह कसक पैदा कर दी थी कि उनकी इस अपनी मीठी-शोख बोली में कोई फिल्‍म क्‍यों नहं बनती है? जब अन्‍य क्षेत्रीय भाषाओं में फिल्‍में बनायी जा सकती हैं, तब भोजपुरी जैसी विस्‍तृत क्षत्र में बोली-समझी जाने वाली भाषा में फिल्‍म क्‍यों नहीं बनायी जा सकती है? इसी कसक से उद्वेलित होकर वे अपने संपर्क में आये हर भोजपुरी बोलने, समझने वाले फिल्‍मकर्मी को इस बाबत प्रेरित करती रहती थीं। वे समझाती थीं कि भोजपुरी बोलने और समझने वाले तो तकरीबन संपूर्ण हिंदी प्रदेशों में कमोबेश फैले हुए हैं। इसलिए आर्थिक दृष्टि से भी यह सौदा घाटे का नहीं होगा। जरूरत महज इस बात की है कि कोई साहसी, धैर्यवान और मेहनती आदमी इस ओर पहल करे। जद्दनबाई के अलावा विशुद्ध बनारसी और विलक्षण प्रतिभाशाली कलाकार कन्‍हैयालाल भी इस दिशा में पांव आगे बढ़ाने के लिए लोगों को प्रेरित करते रहे। फिल्‍म बनाने के मुताबिक ये दोनों अगर व्‍यावहारिक स्‍तर पर स्‍वयं कोई सार्थक कोशिश नहीं कर पाये तो इसकी एकमात्र वजह थी, इनकी निजी सीमाएं और उम्रगत विवशताएं।
ख्‍वाब को हकीकत में बदलने की तड़प


जद्दनबाई और कन्‍हैयालाल ने उत्‍प्रेरक की भूमिका निभाते हुए चाहे चंद लोगों को ही सही, पर इस ओर कम से कम सोचने को बाध्‍य तो कर ही दिया। तब इन्‍हें पता नहीं था कि भोजपुरी में फिल्‍म निर्माण का जो खयाल इनकी आंखों में किसी सुनहरे ख्‍वाब की शक्‍ल में बसा हुआ था, उसे हकीकत में तब्‍दील करने के लिए भोजपुरी मिट्टी का एक सच्‍चा सपूत बहुत जल्‍द ही अपनी कमर कस कर निकल पड़ेगा। वह शख्‍स, जिसके पूरे वजूद को इस खयाल ने रूहानी और जिस्‍मानी दोनों तौर पर बेहद बेचैन और परेशान कर रखा था, उसका नाम था, नजीर हुसैन। उन्‍हें भोजपुरी फिल्‍म बनाने की प्रेरणा देशरत्‍न डॉ राजेंद्र प्रसाद के सान्निध्‍य से मिली थी। सबसे पहले उन्‍होंने राजेंद्र बाबू के समक्ष जब अपना यह विचार प्रकट किया था, तब देशरत्‍न ने कहा था, “बात तs बहुत नीक बा, बाकी एकरा ला बहुत हिम्‍मत चाहीं। ओतना हिम्‍मत होखे तs जरूर बनाईं।” राजेंद्र बाबू की इसी बात ने जल्‍दी से जल्‍दी भोजपुरी फिल्‍म बनाने के लिए उन्‍हें परेशान कर रखा था।
नजीर साहब हिंदी फिल्‍मों के मशहूर चरित्र अभिनेता होने के साथ साथ एक संवेदनशील लेखक भी थे। ग्रामीण पृ‍ष्‍ठभूमि से संबंधित होने के कारण उन्‍होंने भोजपुरी भाषी क्षेत्रों की विवश स्थितियों और सामाजिक समस्‍याओं को न सिर्फ करीब से देखा-परखा था बल्कि अंदरूनी तौर पर उनकी तपिश भी महसूस की थी। इसी तपिश को उन्‍होंने एक ऐसी कहानी के सांचे में ढाला था, जो उनकी जुबान से सुनने पर कहानी नहीं वरन भोजपुरी इलाकों को साफ, सच्‍ची और जीती जागती तस्‍वीर मालूम पड़ती थी। इसके ग्राम्‍यबोध के कारण वे इसे भोजपुरी में ही बनाने को संकल्पित थे। इसी भावना के साथ उन्‍होंने यह कहानी कई निर्माताओं को सुनायी। कई लोग हिंदी में इसके फिल्‍मांकन के लिए तैयार हो गये लेकिन, भोजपुरी जैसी नयी भाषा में फिल्‍म बनाने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। सब की नजरों में यह एक जोखिम भरा काम था। जहां लीक पीटने की प्रवृत्ति कई दशकों से स्‍वभाव और संस्‍कार में शामिल हो चुकी हो, वहां एक नयी लीक गढ़ने में ऐसी मुश्किलों से वास्‍ता पड़ना बहुत सहज-सामान्‍य बात ही थी। इसी कारण हर ओर से मिलती निराशा के बावजूद नजीर साहब हताश नहीं हुए। विमल राय जैसे ख्‍यातिलब्‍ध निर्देशक ने उस कहानी पर हिंदी फिल्‍म बनाने की पेशकश की पर, इस सम्‍मानजनक प्रस्‍ताव की कद्र करते हुए भी उन्‍होंने अपना इरादा बदस्‍तूर बरकरार रखा। पता नहीं किस आत्मिक शक्ति की वजह से उन्‍हें बराबर यह यकीन बना रहा कि कभी न कभी तो कोई ऐसा व्‍यक्ति मिलेगा, जो उन्‍हीं की तरह बुलंद हौसलेवाला सच्‍चा भोजपुरिया होगा। नतीजन वे अपनी जिद पर अड़े रहे कि, इ फिलिमिया चाहे जहिया बनी, बाकी बनी तs भोजपुरिये में।
वक्‍त की रफ्तार के साथ-साथ निर्माता ढूंढ़ने की कोशिश भी अनवरत आगे बढ़ती रही। यह एक ऐसी अंधेरी यात्रा थी, जिसकी सुबह कब, कैसे और कहां होगी, सिवा ऊपरवाले के और किसी को इसकी कोई खबर नहीं थी। चारों ओर बस एक दर्दीला सन्‍नाटा पसरा हुआ था। ऐसे अंधेरे सफर में नजीर साहब के हमसफर बने असीम कुमार, जो तब हिंदी फिल्‍मों के एक नामचीन अदाकार हो चुके थे। बनारसी होने और विमल राय की कई फिल्‍मों में साथ काम करने के कारण इन दोनों में अच्छी नजदीकी कायम हो गयी थी। नजीर साहब ने अपनी इस भावी फिल्‍म में उन्‍हें हीरो बनाने का फैसला भी कर लिया था। उन दिनों अपनी हर मुलाकात में वे असीम कुमार को कहते, “अरे असीमवा! कोई मिल जाय त कइसहुं इ फिलिमिया बना लीहीं…” निर्माता तो खैर वर्षों तक नहीं मिला, पर इसी दरम्‍यान नजीर हुसैन से मिलने एक ऐसे सज्‍जन आये जो जद्दनबाई से प्रेरित होकर खुद ही भोजपुरी फिल्‍म के सूत्रधार बनने के कल्‍पनालोक में पूरी तरह खोये हुए थे। ये थे, मुंगेर, बिहारवासी बच्‍चा लाल पटेल। यों तो पटेल ने लंकादहन जैसी कुछ पौराणिक फिल्‍मों में अभिनय भी किया था लेकिन मूलत: वे फिल्‍मों के निर्माण-प्रबंधन, नियंत्रण और वितरण कार्यों से संबंधित थे। इसलिए बिहार, बंगाल के कई फिल्‍म वितरकों से उनकी अच्‍छी-खासी जान-पहचान थी। फिल्‍मोद्योग में नजीर साहब की कहानी की चर्चा ही उन्‍हें उन तक खींच लायी थी। उन्‍होंने कहानी सुनी और पसंद भी कर ली। बावजूद इसके बात आगे नहीं बढ़ पायी, क्‍योंकि पूरी फिल्‍म बनाने लायक पूंजी पटेल के पास भी नहीं थी। लेकिन वे एक जुगाड़ी आदमी थे और उन्‍हें अपनी इस प्रतिभा पर पूरा ऐतबार था। लिहाजा नजीर साहब को आश्‍वस्‍त कर वे अपने ढंग से किसी ऐसे पूंजीदाता की तलाश में लग गये जो इस मुतल्लिक उनकी सहायता कर सके। इस आशावादी मुलाकात से रोमांचित हुए बगैर नजीर हुसैन आगे की यात्रा तय करते रहे क्‍योंकि फिल्‍मोद्योग के अपने पुराने अनुभवों से वे जान चुके थे कि यहां जब तक कुछ घटित न हो जाए, तब तक उसका भरोसा नहीं किया जा सकता।
योगदान “गंगा जमुना” का

वक्‍त गुजरता रहा और उसके साथ ही नजीर साहब की अंदरूनी छटपटाहट बढ़ती रही। अब तक असीम कुमार भी निर्माता ढूंढ़ते-ढूंढ़ते थक चुके थे। अब हर पल मन में बस यही कामना कसकती रहती कि कहीं से कोई फरिश्‍ता आये और इस अंतहीन मानसिक चिंता से उन्‍हें उबार ले। नजीर साहब को शुरू से ही इसका पक्‍का विश्‍वास था कि जिस दिन उनकी कहानी उनके मिजाज से फिल्‍मांकित होकर भोजपुरी क्षेत्रों के सिनेमाघरों के पर्दों तक पहुंच जाएगा, लोग इसे जरूर पसंद करेंगे और तब भोजपुरी फिल्‍मों का बंद पड़ा निर्माण द्वार जरूर खुल जाएगा। एक ओर था इतना प्रबल आत्‍‍मविश्‍वास और दूसरी ओर कड़वे यथार्थ की मटमैली, रूखी और निराशाजनक सच्‍चाइयां! फिर भी अपनी स्‍पष्‍ट सोच के साथ तमाम नाकामयाबियों को झेलते और सहते हुए वे आगे बढ़ते ही रहे। तब उन्‍हें क्‍या पता था कि हमेशा की तरह वे जिस एक और फिल्‍म में अभिनय करने जा रहे हैं, वही कल को भोजपुरी फिल्‍मों के निर्माण की नींव बनने में सहायक सिद्ध होगी और उसी से एक नये भविष्‍य की पृष्‍ठभूमि तैयार होगी। यह फिल्‍म थी “गंगा जमुना” और इसके निर्माता थे अभिनय सम्राट दिलीप कुमार के भाई नारिस खां।
“गंगा जमुना” एक ऐसी फिल्‍म थी, जिसमें पूरेपन में अवधी संवादों का व्‍यवहार किया गया था। हिंदी सिनेमा के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था। संगीत निर्देशक नौशाद की सूझ, प्रेरणा, जिद और सहयोग की वजह से ही अवधी से पूर्णरूपेण प्रभावित इस पहली हिंदी फिल्‍म का निर्माण संभव हो पाया था। फिल्‍म और फिल्‍म संगीत, दोनों ही दृष्टि से “गंगा जमुना” सुपरहिट रही। राष्‍ट्रीय स्‍तर पर इसकी ईर्ष्‍याजनक व्‍यावसायिक सफलता ने पहली बार विश्‍वास उत्‍पन्‍न किया कि अन्‍य क्षेत्रीय भाषाओं की तरह उत्तर भारतीय बोलियों-भाषाओं में भी फिल्‍में बनायी जा सकती हैं। तब इस संदर्भ में चर्चाओं और बहस-मुबाहिसों का बाजार काफी गर्म हो उठा। परंतु तमाम गहमागहमी के बावजूद बंबई फिल्‍मोद्योग का कोई निर्माता एक नयी राह गढ़ने की हिम्‍मत नहीं जुटा सका। यह हिम्‍मत और हिमाकत जिस शख्‍स ने की, वह बंबई से लगभग दो हजार किलोमीटर दूर गिरिडीह, बिहार में कोयला खानों के व्‍यवसाय से संबंधित था और उसे तब फिल्‍म निर्माण का कोई अनुभव नहीं था। बंधुछपरा, शाहाबाद (बिहार) निवासी इस दिलेर हस्‍ती का नाम था, विश्‍वनाथ प्रसाद शाहाबादी।

शाहाबादी एक पक्‍के भोजपुरिया थे। तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के व्‍यक्तित्‍व ने उन पर भी काफी गहरा प्रभाव डाला था। राजेंद्र बाबू की आदत थी कि जब भी कोई भोजपुरी भाषी उनसे मिलता, वे बगैर किसी संकोच या हिचक के स्‍वयं ही भोजपुरी में बात करना शुरू कर देते थे। भारत के प्रथम नागरिक होने का आभिजात्‍य या गौरव इस भाषाप्रेम में कभी उनके आड़े नहीं आया। वैसे भी सरलता, सहजता और सादगी तो देशरत्‍न की बहुचर्चित विशिष्‍टताएं थीं हीं, परंतु इन सबसे ज्‍यादा उनके भाषाप्रेम ने शाहाबादी को मन की भीतरी तहों तक अभिभूत कर रखा था। इसीलिए उनके हृदय में भी अपनी इस भाषा के सम्‍मान और विकास के लिए कुछ सार्थक काम कर गुजरने की आकांक्षा काफी भीतर तक पैठ चुकी थी। तलाश थी तो सिर्फ उचित अवसर और अनुकूल परिवेश की। संयोगवश गगा जमुना की सफलता ने उनकी इस आकांक्षा को फलीभूत करने के लिए सही स्थिति उत्‍पन्‍न कर दी।
सपने साकार हुए
1961 के वर्षांत में शाहाबादी अपने एक मित्र के साथ जब बंबई आये, तब बच्‍चा लाल पटेल द्वारा उन्‍हें नजीर हुसैन की कहानी और भावी भोजपुरी फिल्‍म की योजना के बारे में पता चला। अपनी आंतरिक आकांक्षा के कारण सहज ही इस योजना में उनकी गंभीर रुचि उत्‍पन्‍न हो गयी। चूंकि “गंगा जमुना” की सफलता ने पहले से ही उन्‍हें उद्वेलित कर रखा , इसलिए इस संदर्भ में निर्णय लेने में उन्‍हें देर नहीं लगी। उस वक्‍त फिल्‍मोद्योग की कई अनुभवी हस्तियों ने उनकी अनुभवहीन स्थिति देखते हुए इस बाबत काफी रोका-टोका। लोगों ने समझाया कि पहली बार निर्माण क्षेत्र में प्रवेश करने के साथ ही इतना बड़ा खतरा मोल लेना उनके पूरे भविष्‍य को अंधेरे में डुबो सकता है, परंतु अपने भाषाप्रेम के कारण शाहाबादी इन फिल्‍मी नसीहतों से बेअसर रहे। नफा-नुकसान की परवाह किये बगैर उन्‍होंने फिल्‍म निर्माण की शुरुआत के लिए नजीर हुसैन को हरी झंडी दिखा दी।
जनवरी 1961 में इस प्रथम भोजपुरी फिल्‍म के निर्माण की आरंभिक तैयारियां नजीर हुसैन के मार्गदर्शन में शुरू हुई। फिल्‍म का नाम रखा गया, “गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो”। असीम कुमार, बच्‍चालाल पटेल, रामायण तिवारी और भगवान सिन्‍हा जैसे हिंदी फिल्‍मों से जुड़े भोजपुरीभाषियों ने इस पवित्र यज्ञ को सकुशल संपन्‍न कराने के लिए अथक परिश्रम किया। आपसी सहयोग के आधार पर इन सबों ने उत्तर भारतीय फिल्‍मकर्मियों की एक सूची तैयार कर कलाकारों और तकनीशियनों का चयन किया। इसी आधार पर निर्देशक के रूप में कुंदन कुमार का नाम तय हुआ। चूंकि लेखक नजीर हुसैन की स्क्रिप्‍ट पहले से ही पूरी तरह तैयार थी, इसलिए शेष तैयारियों के बाद शाहाबादी और कुंदन कुमार ने तुरंत ही शूटिंग शुरू कर देने का फैसला कर लिया। 16 फरवरी 1962 को पटना के ऐतिहासिक शहीद स्‍मारक पर फिल्‍म का मुहूर्त समारोह संपन्‍न हुआ और अगले दिन से शूटिंग शुरू हो गयी। फिल्‍म से संबंधित सारे लोगों ने समर्पण की भावना के साथ अपना-अपना योगदान दिया। इस सम्मिलित, समर्पित प्रयास का ही नतीजा था कि समय-समय पर आयी आर्थिक रुकावटों के बावजूद निर्माण की गति में कभी शिथिलता नहीं आयी। पहले से निर्धारित बजट से कुल खर्च काफी ज्‍यादा बढ़ गया, पर शाहाबादी ने इस पर नाक-भौं नहीं सिकोड़ा और फिल्‍म के निर्माण स्‍तर के साथ कोई गलत समझौता नहीं किया। निर्माण की सारी प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद अंतत: 1962 के वर्षांत में यह फिल्‍म सबसे पहले बनारस के प्रकाश टॉकीज में प्रदर्शित हुई। अगले सप्‍ताह ही वहां आलम यह हो गया कि दूरदराज के गांव, कस्‍बों और शहरों से लोग खाना-पीना साथ लेकर बनारस पहुंचने लगे। थिएटर के बाहर मेले का दृश्‍य उपस्थित हो गया और एक नयी कहावत चल पड़ी, “गंगा, नहाs, बिसनाथ दरसन करs, गंगा मइया… देखs, तब घरे जा… !”
प्रदर्शन के कुछ ही दिनों बाद “गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो” ने क्षेत्रीय फिल्‍मों की सफलता के इतिहास में एक उज्‍ज्‍वल, अनछुआ और स्‍वर्णिम पृष्‍ठ जोड़ दिया। इसके द्वारा भोजपुरी भाषी इलाकों में व्‍याप्‍त दहेज, बेमेल विवाह, नशेबाजी, सामंती संस्‍कारों तथा अंधविश्‍वासी परंपराओं से उत्‍पन्‍न सामाजिक समस्‍याओं का ऐसा सही और संवेदनशील चित्र उपस्थित हुआ कि दर्शकों को यह महज फिल्‍म नहीं बल्कि अपनी ही जिंदगी की अनकही कहानी लगी। इस फिल्‍म से दर्शकों का आत्‍मीय संबंध कायम करने में सबसे अहम भूमिका रही गीतकार शैलेंद्र और संगीतकार चित्रगुप्‍त की। “काहे बंसुरिया बजवले”, “सोनवां के पिंजरा में बंद भइल हाय राम”, “मोरी कुसुमी रे चुनरिया इतर गमके”, “अब हम कइसे चलीं डगरिया” तथा “हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो संइया से कर दे मिलनवा” जैसे भोजपुरी लोकसंगीत के रस में डूबे मीठे, दर्दीले और शोख गीतों ने कुछ ऐसा समां बांधा कि वर्षों तक हर ओर बस “गंगा मइया…” की ही गूंज रही। आज भी इन गीतों का जादू बिल्‍कुल उसी तरह बरकरार है, जैसा तब था।
उज्‍ज्‍वल भविष्‍य की ओर

यह सच है कि नजीर हुसैन, रामायण तिवारी, लीला मिश्रा, शैलेंद्र, चित्रगुप्‍त, असीम कुमार और कुमकुम के फिल्‍म कैरियर की शुरुआत हिंदी फिल्‍मों से हुई थी और वहां अपनी अपनी सीमाओं में उनकी सुदृढ़ व्‍यावसायिक पहचान भी बनी हुई थी, बावजूद इसके यह भी उतना ही बड़ा सच है कि इन्‍हें सम्‍मान और सफलता की जो ऊंचाई भोजपुरी फिल्‍मों से मिली, वह हिंदी फिल्‍मों से बढ़चढ़ कर ही रही। कम से कम नजीर हुसैन, तिवारी, चित्रगुप्‍त, असीम कुमार और कुमकुम के संदर्भ में तो यह बात पूरे विश्‍वास के साथ कही जा सकती है। ये सभी भोजपुरी के स्‍टार, सुपर स्‍टार रहे। असीम कुमार और कुमकुम आज भले ही पर्दे पर दिखाई न पड़ें, पर एक वक्‍त था जब यह जोड़ी दिलीप कुमार-मीना कुमारी और राजकपूर-नर्गिस की तरह ही दर्शकों में लोकप्रिय थी। चित्रगुप्‍त तो आज भी भोजपुरी के अकेले सिरमौर संगीत निर्देशक हैं, जिन्‍होंने सबसे ज्‍यादा हिट फिल्‍में दी हैं। इन सबों को सफलता के शीर्ष की छुअन का सुख हासिल कराने में सबसे महत्‍वपूर्ण योगदान “गंगा मइया…” का ही रहा, क्‍योंकि उसी ने भोजपुरी फिल्‍मों के निर्माण द्वार को पहले पहल खोला और एक नये भविष्‍य की रचना की। कुमारी पद्मा के रूप में जो नवोदित प्रतिभ वहां पहली बार पर्दे पर अव‍तरित हुई थी, आज वही पद्मा खन्‍ना बन कर उपलब्धियों के एक विस्‍तृत आकाश को अपने दामन में समेट चुकी है। हिंदी में जो स्‍थान नर्गिस या मधुबाला का रहा है, भोजपुरी में अपनी वैसी ही जगह बनाने के बाद पद्मा खन्‍ना एक भावप्रवण नर्तकी और अविस्‍मरणीय अभिनेत्री के रूप में आज भी सक्रिय है।
“गंगा मइया…” के विषय में फिल्‍म इतिहासकार फिरोज रंगूनवाला ने अपनी पुस्‍तक A Pictorial History of Indian Cinema में लिखा है -

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