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Friday, November 9, 2012

भोजिवुड का संकट

भोजिवुड का संकट 
रवि किशन बने "दबंग", अब चलेगी मनोज तिवारी की डॉनगिरी, निरहुआ करेंगे ६ इंच छोटा.  इन तीन खबरों से ही भोजपुरी सिनेमा के पूरे चाल  और चरित्र को समझ लीजिये. ऐसा लगता है जैसे आज-कल हिंदी प्रदेशों में क्षेत्रीय सिनेमा के नाम पर मालेगांव का गब्बर परोसा जा रहा है. पिछले  वर्षो में भोजपुरी सिनेमा ने एक जोरदार अंगड़ाई लेकर सारे समीकरणों को उलट-पलट दिया. यश चोपडा और करण जौहर मार्का फिल्‍में मल्टीप्लेक्स थियेटरों और ओवरसीज मार्केट के गुब्बारे में फूल कर बॉक्स-ऑफिस के रिकॉर्ड बनाती- बिगाड़ती रहीं. जड़-जमीन से कटी इन फिल्मों ने जड़-जमीन से जुड़ी फिल्मों के पुनर्जन्‍म का बीज बोया.
ग्लैमर और फैशन की चकाचौंध से लकदक इन फिल्मों को दर्शकों ने धीरे से ही सही मगर नकार दिया और मल्टीप्लेक्स कलेवर की ये फिल्में केवल ट्रेंड मैगज़ीनों में ही रिकॉर्ड तोड़ती रहीं. ऐसे आंकड़ों से बाज़ार को गुमराह किया जा सकता है, लेकिन दर्शक आंकड़े नहीं देखते. नतीजा ये निकला की क्षेत्रीयता की चासनी में डूबी फिल्में फिर से बॉक्स-ऑफिस पर धूम मचाने लगी, जिसकी पराकाष्ठा  दबंग की कामयाबी के रूप में देख सकते है. दबंग की कामयाबी के कई मायने हैं. दरअसल ये फिल्म एक संक्रमण बिंदु की तरह हैं, जहां भारतीय सिने प्रेमियों के लिए एक आशा है, तो वहीं भाषाई फिल्मों के नाम पर कचरा परोसने वालों के लिए खतरे की घंटी भी है.
 "मार देब गोली त केहू न बोली" एक भोजपुरी फिल्म का टाइटल उधार लेकर कहें तो दबंग की पूरी फिलासफी यही  थी यानि  कुकुरमुत्ता की तरह उगते भोजपुरिया एक्शन फिल्मों का परिष्कृत मिज़ाज, भोजपुरी फिल्मों में भोजपुरी के तथाकथित स्टार, सुपरस्टार या महानायक जो चुलबुल पांडेनुमा कारनामे दिखाते है. वही सलमान ने अपने अंदाज़ में बड़े पर्दे पर परोस दिया  चुलबुल पांडे यानी रंगदारों का रंगदार ज्यादा उड़े तो ठाएँ... गोली बाद में निकलेगी, लेकिन जान पहले. क्षेत्रीय फिल्मों का हीरो जो कुछ करता है अगर वही सलमान, शाहरुख़ और आमिर करने लगे तो गोबर सिंह क्या करेगा ? दरअसल 90 प्रतिशत भोजपुरी फिल्में हिंदी फिल्मों से खाद-पानी ले रही हैं. कई फिल्में तो शुद्ध रूप से हिंदी फिल्मों का रूपांतरण हैं. भोजपुरी फिल्मों में बॉलीवुड की छौंक लगाने की बढ़ती प्रवृत्ति इन्हें 'ना घर का ना घाट' का जैसी स्थिति की ओर धकेल रही है.
मल्टीप्लेक्स थियेटरों का बढ़ता मोह, स्टार सिस्टम, जड़ों से दूर होते चले जाने की प्रवृत्ति, अश्लीलता को हास्य समझने की भूल और द्विअर्थी गानों का प्रयोग, ये ऐसे तत्व हैं जो एक पूरी सिनेमाई संस्कृति को बर्बादी के गर्त में धकेलने पर आमदा हैं. भोजपुरी फिल्मों में बाहर वालों की आमद भी खूब बढ़ रही हैं. जिन्हें ना भाषा की समझ है और ना ही संस्कृति की. खासकर हिंदी फिल्मों की लुटी-पिटी नायिकाओं ने इन फिल्मों को अपना बसेरा बना लिया है. उनके लिए रिमोट से लंहगा उठाना ही भोजपुरी फिल्म की परिभाषा है. दर्जन भर फिल्मों में कमर मटका चुकी हिरोइनों से पूछिए की क्या उन्हें भोजपुरी आती हैं तो वह गर्व से कहेंगी कि नहीं आती हैं. इसके बावजूद जो कुछ उन्हें आता हैं, उसी से सुपरस्टार बनी बैठी हैं. 

ये विडम्बना नहीं तो क्या है? बहरहाल दबंग की दबंगई ने खतरे की घंटी बजा ही दी है. अगर वक्त के मिजाज़ को भोजपुरी फिल्मों ने नहीं पहचाना तो पूरी इंडस्‍ट्री पर ग्रहण लग जाएगा.

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