बॉलीवुड में हुस्न और सौंदर्य का एक सांचा होता है... जो इस सांचे में फिट है, वही हिट है... लेकिन शबाना आज़मी बॉलीवुड की उन अभिनेत्रियों में से हैं, जिन्होंने सिनेजगत में सौंदर्य के पूरे पारंपरिक सांचे को उलटते-पुलटते हुए खूबसूरती की एक नयी परिभाषा गढ़ी.... हिंदी सिनेमा में शबाना आज़मी का आगमन एक नयी परंपरा की शुरुआत थी और चालीस सालों बाद भी शबाना अपनी परंपरा की इकलौती वाहिका है...
18 सितम्बर 1950 को मशहूर शायर और गीतकार कैफ़ी आज़मी के घर जन्मी शबाना शुरू से ही प्रोग्रेसिव विचारों की थी.... लेकिन परम्परों और मर्यादाओं में उनकी गहरी आस्था थी... यही वजह है कि अभिनय उनकी प्राथमिकता में नहीं था... लेकिन फिल्म "सुमन" में जया बच्चन की एक्टिंग से शबाना इतनी प्रभावित हो गयी कि उन्होंने फिल्म एक्टिंग और टेलिविज़न इंस्टीट्युट ऑफ़ इंडिया में दाखिला ले लिया.... और इसके साथ ही करियर को लेकर शबाना के दिलो-दिमाग में चल रहा ओहा-पोह भी ख़त्म हो गया... 1973 में एक्टिंग का डिप्लोमा हासिल कर जब वो वापस लौटी, तो मरहूम ख्वाजा अहमद अल्बास ने उन्हें अपनी फिल्म "फांसला" के लिए साईन कर लिया.. लेकिन उनकी रिलीज़ होनेवाली पहली फिल्म श्याम बेनेगल की "अंकुर" थी... इस दशक में समानांतर सिनेमा अपनी जड़ें फैला रहा है... लेकिन तब सिनेमा आज की तरह दो धडों में बटा हुआ नहीं था... यही वजह है कि "अंकुर"में लक्ष्मी के रोल के लिए कई अभिनेत्रियाँ भी लाईन में लगी हुई थी... लेकिन श्याम बेनेगल ने अपेक्षाकृत नयी शबाना को तरजीह दी और शबाना ने पहली ही फिल्म में अपना दम-ख़म दिखा दिया... इस फिल्म के आलोचकों की सराहना तो मिली ही साथ ही बॉक्स ऑफिस पर भी इस फिल्म को ज़बरदस्त कामयाबी भी मिली... फिल्म में शानदार एक्टिंग के लिए उन्हें बेस्ट एक्ट्रेस के नॅशनल अवार्ड से नवाज़ा गया.... अब तक अर्थ, खँडहर, पार और गोडमदर सहित पांच फिल्मों के लिए नॅशनल अवार्ड जीत चुकी शबाना आज़मी ने सिनेमा को जन-जीवन से जोड़ने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.... शबाना की फ़िल्में सिनेमा के एक तिलस्म से बाहर निकलकर उसे युग जीवन से जोडती है.... इन फिल्मों में जो भी चाहे अपने अक्श को हु-ब-हु देख सकता है... निशांत, जूनून, शतरंज के खिलाडी, स्पर्श, पार और अर्थ जैसी फिल्मों में जहाँ शबाना ने अपनी एक्टिंग का लोहा मनवाया है, वहीं अमर-अकबर-एंथोनी, परवरिश, ज्वालामुखी, फकीरा जैसी शुद्ध कमर्शियल फिल्मों से ये भी साबित कर दिया कि फ़िल्मी लटके-झटके भी उन्हें खूब आते हैं... ये दीनार बात है कि कमर्शियल फ़िल्में शबाना के मिजाज़ को कभी रास नहीं आई...
शबाना का मिजाज़ किसी निश्चित परिपाटी को अपनाने को कभी तैयार नहीं रहा... दीपा मेहता की "फायर" जैसी बोल्ड फिल्म का मामला हो या फिर जावेद अख्तर जैसे शादीशुदा शख्स से शादी करने का उनका निजी फैसला... उन्होंने अपनी सोच को हमेशा अपने मुताबिक चलने की छुट दी... उनके स्वाभाव में एक रचनात्मक अंतविरोध साफ़-साफ़ देखा जा सकता है... फिल्म हो या निजी ज़िन्दगी शबाना की जड़ें जमीन से जुडी रहती हैं... फिल्मों में तो वो आम आदमी के दुःख-दर्द को तो पेश करती ही रही हैं... पर आज कल निजी ज़िन्दगी में भी शबाना शोषित समाज की मुखर आवाज़ बनकर छाई रहती है... हिंदी सिनेमा कि इस सम्पूर्ण अभिनेत्री को जन्मदिन की ढेर सारी शुभकामनाएं...
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