BOLLYWOOD AAJKAL

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OLD& BOLD BOLLYWOOD

Friday, November 9, 2012

छोटा पैकेट बड़ा धमाल


छोटा पैकेट बड़ा धमाल 
पान सिंह तोमर (.लागत 4.5 )करोड़ ,(मुनाफा -20 करोड़) .विकी डोनर -(लागत -5 करोड़ .मुनाफा -45 करोड़ )कहानी (लागत-8 करोड़ मुनाफा -75 करोड़ )इशकजादे (लागत-22 करोड़ मुनाफा -40 करोड़ ) मंदी के दलदल में फंसे बॉलीवुड के लिए ये आंकड़े चौकाने वाले हो सकते हैं।लेकिन छोटी बजट की फिल्मों ने कामयाबी के  जो आंकड़े पेश किये हैं वो अब एक ट्रेंड का रूप लेता जा रहा है .स्मॉल बजटकी फिल्मों के बड़े कारोबार ने बॉलीवुड के सारे फौर्मूलों को उलट -पलट कर रख दिया है।साल 2012 में कब तक प्रदर्शित फिल्मों की कामयाबी का औसत 25 फीसदी रहा है,जिसमे से 15 फीसदी हिस्सा छोटी बजट की फिल्मों का है.

छोटे बजट की फिल्मों मुम्बैया फौमूलों और ताम- झाम से दूर एक अप्रचलित ढर्रे पर आगे बढती है .यहाँ विदेशी लोकेशनों की भव्यता तो नहीं है लेकिन कथानक की मौलिकता जरूर है।फ़िल्मी लटके -झटकों से दूर ये फ़िल्में एक सार्थक बहस छेड़ते हुए अपने उद्देश्य की तरफ इस गति से आगे बढ़ती हैं की दर्शकों की तन्मयता   टूटे .लार्जेर देन लाइफ की इमेज वाले स्टारों से मुक्त इन फिल्मों का असली हीरो कंटेंट होता है .कथानक की मौलिकता और दर्शकों में उसकी स्वीकृति ने ट्रेड पंडितों को भी हैरत में डाल रखा है .सौ करोड़ के क्लब में शामिल अग्निपथ ,रौडी राठोड .बोल बच्चन ,हौसफुल -2 और एक था टाइगर जैसी फिल्मों के मुकाबले पान सिंह तोमर,विकी डोनर ,कहानी और इशाक्जादे जैसी फिल्मों की कामयाबी इस मायने में ज्यादा बड़ी है की इन फिल्मों ने केवल लागत के मुकाबले कई गुना ज्यादा मुनाफा कमाया बल्कि एक पूरे सिनेमाई परंपरा में सेंध लगाते हुए अपने वजूद का मजबूत एहसास भी कराया .अगर 25 करोड़ में बनी इशाक्जादे 40 करोड़ का शुद्ध मुनाफा कमाती है और 8 करोड़ की कहानी  75 करोड़ का कारोबार करती है तो 52 करोड़ में बनी अग्निपथ (कमाई -120 करोड़ )और 60 करोड़ में बनी रौडी राठोड (कमाई-140 करोड़)से ज्यादा कामयाब फिल्म मानने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए .

सौ करोड़ की क्लब में शामिल सारी फ़िल्में शुद्ध रूप से मुनाफा कमाने के उद्देश्य से बनायी गयी फ़िल्में हैं, जहाँ कंटेंट के लिहाज से कट और पेस्ट की संस्कृति का अनुसरण किया गया है .बौद्य्गार्ड और रौदी राठोड जैसी फ़िल्में फ्रेम -दर -फ्रेम साउथ से हिंदी में डब की गयी वही अग्नि पथ एक रीमेक फ़िल्में है .हाउसफुल-2 होलीवुड की नक़ल है तो बोलबच्चन फीकी पकवान पर ऊंची दूकान के मुलम्मे से लैस है .इन फिल्मों का रिस्क फैक्टर कुछ भी नहीं था .लेकिन कहानी और पानसिंह तोमर जैसी फिल्मों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता .इन फिल्मों के आलावा फेरारी की सवारी ,हेट स्टोरी और हालिया रिलीज इंगलिश -विन्ग्लिश एक प्रायोगिक फिल्म थी जिसका रिस्क फैक्टर काफी ज्यादा था .इसलिए उनकी कामयाबी भी ज्यादा मायने रखती हैं।ट्रेड पंडित तरन आदर्श के मुताबिक़ -ये फ़िल्में परिवेश, किरदार,भाषा और समस्याओं के स्तर पर सीधे दर्शकों से संवाद स्थापित करने में सफल रही और यही इनकी कामयाबी की वजह रही।मल्टीप्लेक्स कल्चर में इन फिल्मों की घुसपैठ से हिंदी सिनेमा में एक नयी आशा का संचार हो रहा है .आमोद मेहरा के मुताबिक़ -इन फिल्मों की व्यापक स्वीकृति को एक आन्दोलन का प्रथम चरण माना जा सकता है .अगर दो साल पहले ऐसी फ़िल्में रिल्लीज होती तो शायद उन्हें ये कामयाबी नसीब नहीं होतीं
                                                                       
इस सन्दर्भ में एक और बात दिलचस्प है की एक तरफ जहां दबंग .सिंघम और रॉडी राठोड जैसी सिंगल थियेटर के फ्लेवर वाली फिल्मों को भी दर्शक भरपूर तवज्जो दे रहे हैं वहीं दूसरी  तरफ कहानी,विकी डोनर और पान सिंह तोमर जैसी गैर व्यवसायिक फिल्मों को भी उनका भरपूर प्यार मिल रहा है .इस बारे में निर्माता-निर्देशक महेश भट्ट का कहना है की  -दर्शकों की पसंद का दायरा काफी विस्तृत हो चूका है .अब हर तरह की फिल्मों के लिए स्कोप है ,जिसमे जितना दम होगा वही यहाँ टिक पायेगा,लब्बोलुआब ये की आज का दर्शक हर तरह की फिल्मों के लिए तैयार है ..पी वी आर जैसी कुछ कंपनियों ने स्माल बजट की फिल्मों के प्रदर्शन की  सुविधा भी प्रदान की है जिसके तहत चौराहे,क्षय और लव रिंकल फ्री जैसी फ़िल्में थियेटरों तक पहुँच भी चुकी है .सारा माहौल अनुकूल है .अब जीत सको तो जीत लो ...

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