‘दामुल’ के जरिये उन्होने गाँव की पंचायत, जमींदारी, स्वर्ण तथा दलित संघर्ष की दास्ताँ को बड़े ही प्रभावी तरीके से परदे पर उतारा। इस फिल्म को नेशनल अवार्ड मिला और इसके साथ ही उनकी गाड़ी चल निकली। दामुल के बाद उन्होने परिणति और बंदिश जैसी फ़िल्में बनायी लेकिन इन फिल्मों को वैसी चर्चा नहीं मिली जैसी दामुल को मिली थी। 1997 में आयी मृत्यदंड जरूर सुर्ख़ियों में रही। फिल्म औसत रूप से कामयाब रही। प्रकाश झा जब तक कहानी को मूल रूप में पेश करने की जिद्द के कारण व्यावसायिकता को नजरअंदाज करते रहे तब तक उनकी फ़िल्में मास दर्शकों को आकर्षित करने में असफल रही। लेकिन जैसे ही उन्होने चोला बदला दर्शकों ने भी उनकी फिल्मों को हाथों-हाथ लेना शुरू कर दिया। इस नजरिये से देखा जाए तो सही मायने में प्रकाश झा की कामयाबी का सफर साल 2003 में आयी फिल्म "गंगाजल " से शुरू होता है। 'गंगाजल' राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण की सही व्याख्या करती है।तमाम फ़िल्मी लटके-झटकों से लैस ये फिल्म दर्शकों तक अपना सन्देश पहुचाने में कामयाब रही। इस फिल्म ने न केवल सिनेमा के प्रति फिल्मकारों की सोच को बदला बल्कि ये भी साबित हो गया कि कहानी को अगर सलीके से कहा जाए तो दर्शक हर तरह के सब्जेक्ट को स्वीकार तैयार है। गंगाजल के बाद खुद प्रकाश झा की शैली भी बदल गयी और उन्होने समाज से राजनीति पर अपना फोकस शिफ्ट कर लिया। अब प्रकाश झा की फ़िल्में जटिल मुद्दों के साथ सीधे दर्शकों से मुखातिब होने लगी। गंगाजल के बाद आयी अपहरण जिसमे बिहार में चल रहे अपहरण उद्योग का सही पर मनोरंजक खाका खींचा गया। 'चक्रव्यूह' फिल्म में प्रकाश झा ने नक्सली समस्या और उसके न खत्म होने की वजहों पर चर्चा की। 'आरक्षण' फिल्म में प्रकाश झा ने आरक्षण के दोनों पहलुओं को रखने का प्रयास किया। प्रकाश झा द्वारा निर्मित फिल्म 'खोया खोया चांद' फिल्म इंडस्ट्री के अंदर की कहानी कहती है। 'टर्निंग 30' में उन्होंने एक चर्चित विषय को हल्के-फुल्के अंदाज में पेश किया। 'राजनीति' फिल्म में उन्होंने अवसरवादी राजनीति दिखाने की एक सटीक कोशिश की। फिल्म 'सत्याग्रह' में प्रकाश झा अन्ना आंदोलन का असर दिखाते नजर आएंगे। इन सभी फिल्मों में शुद्ध व्यावसायिक आग्रह के बावजूद प्रकाश झा के सामाजिक सरोकार मौजूद हैं भले ही मुलम्मे के साथ।
गंगाजल-२ से उन्होने एक्टिंग में भी हाथ आजमाया और दर्शकों ने उन्हें पसंद भी किया। हालंकि ये फिल्म उनकी उम्मीदों पर खड़ी नहीं उतर पाई लेकिन पूरी तरह खारिज भी नहीं हुई।
बहरहाल राजनीति पर फिल्म बनाकर प्रकाश झा ने शोहरत भी बटोरी और दौलत भी. लेकिन असली राजनीति में न उनकी शोहरत काम आई न दौलत. लोकसभा चुनाव में दो बार मुंह की खा चुके फिल्मकार प्रकाश झा ने अब राजनीति से तौबा कर ली। उन्होंने 2004 में अपने गृह क्षेत्र चंपारन से लोकसभा चुनाव लड़ा. फिर वह 2009 लोक जनशक्ति पार्टी की टिकट पर 2009 में पश्चिम चंपारन सीट से मैदान में उतरे. लेकिन दोनों ही बार वह लोकसभा में पहुंचने में नाकाम रहे.इस तरह प्रत्यक्ष राजनीतिक अनुभव लेने का उनका प्रयास असफल रहा। लेकिन दर्शकों के लिए ये अच्छा ही रहा वर्ना क्या पता झा भी राजनीतिक दलदल में उतरने के बाद फिल्मों से मुंह मोड़ लेते। खुद प्रकाश झा भी अपनी इस असफलता से खुश हैं।
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