BOLLYWOOD AAJKAL

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OLD& BOLD BOLLYWOOD

Tuesday, May 31, 2016

प्लीज, मम्मी न कहो ना ......

बॉलीवुड की लगभग हर हीरोइन मम्मी का पल्लू थाम कर ही फिल्मों में आती है। सेट पर बिना मम्मी के नहीं जाना चाहती। यानी जहाँ-जहां भी इन्हें जाना होता है मम्मियों को साये की तरह साथ चलना पड़ता है। लेकिन जब खुद माँ बनने की बारी आती है तो करियर का हवाला देकर दिन गिनती रहती है ।  रियल लाइफ में तो क्या रील लाइफ में मां बनने में  इन्हें दौरे पड़ने लगते हैं और उम्र और इमेज का हवाला देकर आसानी तो कोई तैयार नहीं होता। बहरहाल हम बात कर रहे हैं उन शादीशुदा अभिनेत्रियों की जिनकी शादी हुए तो लंबा अरसा गुज़र गया लेकिन अभी भी माँ की जिम्मेदारियों को वो उठाने को तैयार नहीं। बात पहले विद्या।  विद्या की शादी को दो  साल हो गए और इस बीच कई बार उनके माँ  बनने की भी ख़बरें आयी लेकिन सब केवल अफवाह साबित हुई। इस बारे में विद्या का कहना है कि अभी उनका करियर समाप्त नहीं हुआ है। और मैं मानसिक रूप से भी बच्चे के लिए तैयार नहीं हूँ। जब वक़्त आएगा तब सोचा जाएगा। भले ही विद्या के पास अभी और वक़्त हो लेकिन तीसरी बार पति बने सिद्धार्थ राय कपूर जो विद्या के वर्तमान पति हैं की बाप बनने की उम्र तो निकली जा रही है ना ? विद्या कहती है -वो भी मेरी भावनाओं को समझते हैं।


 विद्या बालन की तरह करीना कपूर खान की प्रेग्नेंसी की भी ख़बरें उड़ती रहती है। लेकिन करीना की मानें तो अभी वो इस बारे में सोच भी नहीं सकती। विद्या की तरह करीना भी अभी फुर्सत में है और फिर करियर का भी सवाल है। विद्या तो अभी गिनी-चुनी फ़िल्में ही कर रही हैं लेकिन करीना तो मेनस्ट्रीम में बनी हुई है। जाहिर है माँ बनकर अभी वो करियर पर पूर्णविराम नहीं लगाना चाहती। 


एशा देओल की शादी को भी काफी दिन बीत गए  लेकिन अभी तो एशा मम्मी हेमा की छत्रछाया से ही मुक्त नहीं हुई। उनके मुताबिक़ उनकी अभी ऐसी कोई योजना नहीं है जब होगी तो सबसे पहले मीडिया को ही बता दिया जाएगा। बीच में ऐश्वर्या राय  के भी दूसरी बार माँ बनने की ख़बरें आयी। लेकिन ऐसी ख़बरों के कारण वो  मीडिया से ही नाराज़ हो गयी। 

इन अभिनेत्रियों को माँ बनने की जल्दी नहीं है तो जॉन अब्राहम को भी अभी बाप बनने से परहेज है।  जॉन ने लंदन में रहने वाली प्रिया पांचाल से गुपचुप तरीके से शादी कर ली थी। जॉन तो शादी करके वापस आ गए लेकिन पत्नी को वहीं छोड़ आये। ख़बरें उड़ी कि जॉन जल्दी ही पापा बनने वाले हैं। लेकिन जॉन ने इसका खंडन करते हुए कहा की अभी तो इसका कोई सवाल ही नहीं है। उनकी पत्नी अभी पढ़ाई कर रही हैं। जब वक़्त आएगा तब देखेंगे। 

जॉन को भले ही जल्दी न हो लेकिन हाल ही में पिता बनने इमरान खान तो बाप बनकर बड़े खुश नज़र आ रहे हैं। रितेश देशमुख की बात और है। बाप बन कर खुश हैं और अगले की तैयारी में जुटे हैं। 
बॉलीवुड में अभिनेता चाहे दस बच्चों के बाप बन जाएं उनका करियर इससे प्रभावित नहीं होता। लेकिन अभिनेत्रियों के माँ बनते ही खेल खत्म। इस परम्परा से तो माधुरी दीक्षित और काजोल जैसी हीरोइनें भी नहीं बच पायी। ऐसे में भला कौन अपने रुतबे पर ब्रेक लगाना चाहेगा ?  

Saturday, May 28, 2016

अपनी असफलता से खुश प्रकाश झा


 राजनीति एक ऐसा शुष्क विषय है जिसे फ़िल्मी पटकथा का रूप देकर परदे  उतारना और अपने कथ्य से दर्शकों को सहमत करवाना बड़ा ही दुष्कर कार्य है। लेकिन निर्देशक प्रकाश झा इस फन में माहिर हो चुके हैं। अपनी फिल्मों में राजनैतिक मुद्दों को कामयाबी से उठाने वाले प्रकाश झा ने बड़ी ही सफलता से राजनीति को फ़िल्मी दर्शकों के लिए ग्राह्य बना दिया। उनकी फ़िल्में दर्शकों से सीधे  संवाद करने की क्षमता रखती है। यही वजह है कि आरक्षण और सत्याग्रह जैसी फ़िल्में शुद्ध रूप से राजनीति से प्रेरित होने के बावजूद दर्शकों के दिलो-दिमाग में बस गयी। , प्रकाश झा ऐसे फिल्मकार हैं, जो फिल्मों के माध्यम से सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की उम्मीदें लेकर हर बार बॉक्स ऑफिस पर हाजिर होते हैं। उनके साहस और प्रयासों की इस मायने में प्रशंसा की जाना चाहिए कि सिनेमा की ताकत का वे सही इस्तेमाल करते हैं.


  ‘दामुल’ के जरिये उन्होने  गाँव की पंचायत, जमींदारी, स्वर्ण तथा दलित संघर्ष की दास्ताँ को  बड़े ही प्रभावी तरीके से परदे पर उतारा। इस फिल्म को नेशनल अवार्ड मिला और इसके साथ ही उनकी गाड़ी चल निकली। दामुल के बाद उन्होने परिणति और बंदिश जैसी फ़िल्में बनायी लेकिन इन फिल्मों को वैसी चर्चा नहीं मिली जैसी दामुल को मिली थी। 1997 में आयी मृत्यदंड जरूर सुर्ख़ियों में रही। फिल्म औसत रूप से कामयाब रही। प्रकाश झा जब तक  कहानी को मूल रूप में पेश करने की जिद्द के कारण व्यावसायिकता को नजरअंदाज करते रहे तब तक उनकी फ़िल्में मास दर्शकों को आकर्षित करने में असफल रही। लेकिन जैसे ही उन्होने चोला बदला दर्शकों ने भी उनकी फिल्मों को हाथों-हाथ लेना शुरू कर दिया। इस नजरिये से देखा जाए तो सही मायने में प्रकाश झा की कामयाबी का सफर साल 2003 में आयी फिल्म "गंगाजल " से शुरू होता है। 'गंगाजल' राजनीति के अपराधीकरण और अपराध के राजनीतिकरण की सही व्याख्या करती है।तमाम फ़िल्मी लटके-झटकों से लैस ये फिल्म दर्शकों तक अपना सन्देश पहुचाने में कामयाब रही। इस फिल्म ने न केवल सिनेमा के प्रति फिल्मकारों की सोच को बदला बल्कि ये भी साबित हो गया कि कहानी को अगर सलीके से कहा जाए तो दर्शक हर तरह के सब्जेक्ट को स्वीकार  तैयार है। गंगाजल के बाद खुद प्रकाश झा की शैली भी बदल गयी और उन्होने समाज से राजनीति पर अपना फोकस शिफ्ट कर लिया। अब प्रकाश झा की फ़िल्में जटिल मुद्दों के साथ सीधे दर्शकों से मुखातिब होने लगी। गंगाजल के बाद आयी अपहरण जिसमे बिहार में चल रहे अपहरण उद्योग का सही पर मनोरंजक खाका खींचा गया। 'चक्रव्यूह' फिल्म में प्रकाश झा ने नक्सली समस्या और उसके न खत्म होने की वजहों पर चर्चा की।  'आरक्षण' फिल्म में प्रकाश झा ने आरक्षण के दोनों पहलुओं को रखने का प्रयास किया। प्रकाश झा द्वारा निर्मित फिल्‍म 'खोया खोया चांद' फिल्म इंडस्ट्री के अंदर की कहानी कहती है। 'टर्निंग 30' में उन्होंने एक चर्चित विषय को हल्के-फुल्के अंदाज में पेश किया। 'राजनीति' फिल्‍म में उन्होंने अवसरवादी राजनीति दिखाने की एक सटीक कोशिश की। फिल्म 'सत्याग्रह' में प्रकाश झा अन्ना आंदोलन का असर दिखाते नजर आएंगे। इन सभी फिल्मों में शुद्ध व्यावसायिक आग्रह के बावजूद प्रकाश झा के सामाजिक सरोकार मौजूद हैं भले ही मुलम्मे के साथ


 गंगाजल-२ से उन्होने एक्टिंग में भी हाथ आजमाया और दर्शकों ने उन्हें पसंद भी किया। हालंकि ये फिल्म उनकी उम्मीदों पर खड़ी नहीं उतर पाई लेकिन पूरी तरह खारिज भी नहीं हुई। 



बहरहाल राजनीति पर फिल्म बनाकर प्रकाश झा ने शोहरत भी बटोरी और दौलत भी. लेकिन असली राजनीति में न उनकी शोहरत काम आई न दौलत. लोकसभा चुनाव में दो बार मुंह की खा चुके फिल्मकार प्रकाश झा ने अब राजनीति से तौबा कर ली।  उन्होंने 2004 में अपने गृह क्षेत्र चंपारन से लोकसभा चुनाव लड़ा. फिर वह 2009 लोक जनशक्ति पार्टी की टिकट पर 2009 में पश्चिम चंपारन सीट से मैदान में उतरे. लेकिन दोनों ही बार वह लोकसभा में पहुंचने में नाकाम रहे.इस तरह प्रत्यक्ष राजनीतिक अनुभव लेने का उनका प्रयास असफल रहा। लेकिन दर्शकों के लिए ये अच्छा ही रहा वर्ना क्या पता झा भी राजनीतिक दलदल में उतरने के बाद फिल्मों से मुंह मोड़ लेते। खुद प्रकाश झा भी अपनी इस असफलता से खुश हैं। 

स्टारडम वाया चुंबन और इमरान हाशमी

चुंबन देव  इमरान हाशमी 
फ़िल्मी पर्दे किसिंग सीन की अहमियत को इसी  बात से समझा जा सकता है कि इसी के बूते साधारण शक्ल - ओ - सूरत वाले इमरान हाशमी स्टार बन गए। इमरान हाशमी बॉलीवुड के स्टार वाले किसी क्रेटेरिया पर खड़े नहीं उतारते। औसत कद और अभिनय प्रतिभा से शून्य इमरान हाशमी अगर आज बॉलीवुड के ए लिस्टर अभिनेताओं की सूची में शामिल हैं तो ये किसिंग सींस को लेकर भारतीय दर्शकों की अतिरिक्त जिज्ञासा का ही कमाल है। लेकिन उनकी पिछली कुछ फिल्मों पर नज़र डालें तो उनके स्टारडम को फकत किसिंग सींस की उपज बताना थोड़ा ज्यादती होगी क्योंकि इन फिल्मों में उनकी एक्टिंग एक अभिनेता के रूप में उनके बढ़ते ग्रोथ को भी दर्शाता है। 


24 मार्च 1979 को जन्मे  इमरान हाशमी के करियर की शुरूआत फिल्म 'फुटपाथ' से हुई थी। इमरान महेश भट्ट के रिश्तेदार हैं और भट्ट साहब ने अपने इस रिश्तेदार को बॉलीवुड में खपाने के लिए अपने काम कला सबंधी समस्त ज्ञान का उपयोग किया। भट्ट कैम्प की फिल्म मर्डर भले ही हिंदी सिनेमा के परमपरागत मूल्यों की मर्डर करने वाली फिल्म साबित हुई हो लेकिन इस फिल्म ने इमरान हाशमी के करियर को नया जीवन दे दिया। फिल्म में मल्लिका शेरावत का बोल्ड अंदाज़  दर्शकों को खूब भाया और इसके साथ ही इमरान भी  शोहरत की बुलंदियों परपहुँच गए।  'मर्डर' इमरान के करियर की पहली बड़ी हिट फिल्म थी। शमिता शेट्टी के साथ इमरान को फिल्म 'जहर' में भी पसंद किया गया। धीरे-धीरे इमरान भट्ट कैम्प से बहार भी ऐसी फिल्मों के लिए अनिवार्य मान लिए गए। 

                             इमरान हाशमी की पर्दे पर इमेज एक किसर ब्वॉय की है। उनकी हर फिल्म उनके लंबे और जुनूनी किस सीन के लिए याद की जाती है। पर इमरान ने कुछ ऐसी भी भूमिकाएं की हैं जो यह दिखाती हैं कि वह एक अच्छे और सधे हुए अभिनेता भी हैं। सितारों की भीड़ में वह ऐसे सितारे हैं जो हर रोल में फिट बैठ जाते है।तुमसा नहीं देखा,ज़हर,आशिक बनाया आपने,अक्सर,गैंगस्टर,कलयुग,राज़-डा मिस्ट्री कंटीन्यूज़,आवारापन,द ट्रेन,दिल दिया है,द किलर,जवानी दीवानी,तुम मिले,वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई,क्रुक जैसी कामयाबी फिल्मों की फेहरिस्त ये साबित करने के लिए काफी है इमरान हाशमी अभिनेता के रूप में अब परिपक्व हो चुके हैं। इन फिल्मों के अलावा इमरान नें कई फिल्मों में कुछ ऐसे किरदार निभाये हैं जो ट्रेड मार्क बन चुके हैं मसलन दिबाकर बनर्जी की फिल्म 'शंघाई' में इमरान हाशमी ने जो‌गिंदर परमार नाम के एक व्यक्ति की भूमिका निभायी। यह व्यक्ति मीडिया के लिए तस्वीरे खींचने के अलावा छोटे स्तर पर एडल्ट फिल्‍म भी बनाता है। ‌इमरान हाशमी ने इस फिल्‍म में गजब का अभिनय किया। रोल में फिट बैठने के लिए उन्होंने अपना वजन बढ़ाने के साथ एक नकली दांत भी लगाया। साथ ही साथ ऐसे कपड़े पहने जो उसे एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति दिखाएं। इमरान का इस फिल्‍म में बोलने और बात करने का अंदाज भी दूसरी फिल्मों से अलग रहा।डर्टी पिक्चर तो वैसे विद्या बालन के लिए याद की जाएगी लेकिन विद्या के बाद जिस पात्र ने लोगों का सबसे ज्यादा ध्यान खींचा वह फिल्‍म निर्देशक अब्राहम का किरदार था। इमरान हाशमी ने इस नकचढ़े इंटलैक्चुअल फिल्म निर्देशक की भूमिका को शानदार तरीके से जिया। विद्या बालन के साथ प्यार करने के अलावा नफरत करने के दृश्यों में भी उन्होंने दर्शकों को प्रभावित किया। सितारों की भीड़ में भी इमरान बिल्कुल अलग नजर आए।वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई' फिल्म में इमरान हाशमी शोएब खान के किरदार में नजर आए। इसे दाउद अब्राहिम की भूमिका माना गया। इस फिल्म में इमरान हाशमी ने एक महात्वाकांक्षी इंसान की भूमिका को पर्दे पर जींवत किया। अजय देवगन जैसे बड़े कलाकार के होने के बावजूद इमरान हाशमी की भूमिका दर्शकों को याद रही। इमरान के हिस्से में जो दृश्य अजय देवगन के भी साथ थे उसमें भी इमरान कमजोर नजर नहीं आए।एक ही तरह की फिल्मों में टाइप्ड हो चुके इमरान हाशमी को 'गैंगस्टर' फिल्म में देखकर दर्शक चौंक पड़े। ग्रे शेड वाला उनका य‌ह किरदार सभी को रास आया। पर्दे पर उनकी भूमिका इतनी सशक्कत थी कि वह फिल्म के हीरो शाहनी अहूजा पर भी भारी पड़ते दिखे। एक अवसरवादी व्यक्ति का किरदार उन्होंने मानों जी दिया था। इमरान हाशमी में एक अच्छा अभिनेता है इस बात का इशारा भी इसी फिल्‍म से मिला था।
कम बजट की इन फिल्मों ने खासी सफलता हासिल की, इसलिए इमरान बॉलीवुड के कई नायकों की ईर्ष्या के कारण बने। अपेक्षाकृत छोटे बैनर, नए निर्देशक और नई नायिकाओं के साथ उन्होंने सफलता हासिल की। सफल फिल्मों का श्रेय बजाय इमरान को देने के बजाय हिट संगीत को दिया गया। सीरियल किसर के रूप में इमरान का मजाक उड़ाया गया, लेकिन इमरान खामोशी से अपना काम करते रहे।  इमरान का कहना है कि बॉलीवुड और मीडिया उनके बारे में कुछ भी बोलते रहें, लेकिन जनता उन्हें पसंद करती है और यही उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है। वे जनता के हीरो हैं और वे उसकी पसंद के अनुरूप काम करते रहेंगे। हाल ही  में उनकी फिल्म अजहर प्रदर्शित हुई। इमरान कहीं से भी अजहर नहीं लगते और न ही अजहरुद्दीन के व्यक्तित्व में वो करिश्मा बाकी है कि उनकी बायोपिक बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी की गारंटी दे। बावजूद इसके फिल्म चल गई। ये करिश्मा इमरान का है या उसके सीरियल किसर इमेज का या फिर वजह कुछ और ही है ? इसका जवाब आप खुद ही ढूंढें तो बेहतर होगा। 

बॉलीवुड की चुंबन गाथा





काम नहीं था, यही कारण है कि पुरानी फिल्मों में प्रतीक के जरिये किसिंग सीन को दर्शाया जाता था. मसलन दो पक्षियों को चोंच लड़ाते दिखाना, दो फूलों को आपस में सटाकर दिखाना आदि. 


लेकिन बॉलीवुड में कई ऐसी अभिनेत्रियां हुईं, जिन्होंने हिम्मत करके फिल्मों में बखूबी किसिंग दृश्य किये.  जब बॉलीवुड में सेंसरशिप की शुरुआत नहीं हुई थी, तो कई अभिनेत्रियों ने लिपलॉक किसिंग सीन किये. 1929 में रिलीज हुई मूक फिल्म ए थ्रो ऑफ डाइस में हीरोइन सीतादेवी ने चारु राय के साथ लिपलॉक सीन किया था. ललिता पवार, जुबैदा ने भी लिपलॉक सीन किया था. 
देविका रानी ने फिल्म करमा में लिपलॉक सीन दिया था, जो काफी चर्चित हुआ था. यह फिल्म 1933 में रिलीज हुई थी और उनके साथ अभिनेता हिमांशु राय थे, जिन्होंने यह दृश्य किया था. सेंसरशिप के बावजूद राजकपूर ने अपने फिल्मों में एक्सपोज की शुरुआत की और सत्यम शिवम् सुंदरम और बॉबी जैसी फिल्मों में किसिंग सीन को फिल्माया. 

वर्तमान दौर की अगर बात करें, तो अब किसिंग सीन पर सेंसर बोर्ड अपनी कैंची नहीं चलाता है. यही कारण है कि कई फिल्मों में बखूबी किसिंग सीन को फिल्माया गया है. मैंने प्यार किया के किसिंग सीन को लोग आज भी नहीं भूले हैं, बल्कि कई लोग तो उस दृश्य को बार-बार देखना चाहते हैं.
बॉलीवुड की सभी टॉप अभिनेत्रियों ने किसिंग सीन किये हैं और कर रहीं हैं. प्रियंका चोपड़ा ने अंदाज फिल्म में अक्षय कुमार के साथ हॉट किसिंग सीन किया, तो दीपिका पादुकोण ने रणबीर कपूर के साथ बचना ए हसीनों में जबरदस्त किसिंग सीन किया. बिपिशा बासु ने जिस्म में नेचुरल किसिंग सीन देकर लोगों के होश उड़ा दिये थे क्योंकि उनके अपोजिट जॉन अब्राहम थे. 

विद्या बालन ने अपनी पहली फिल्म परिणिता में सैफ अली खान के साथ लिप लॉक सीन दिया था. अब इस कड़ी में युवा दिलों की धड़कन आलिया भट्ट का नाम जुड़, क्योंकि आलिया ने अब तक जितनी भी फिल्में की हैं उनमें आलिया ने लिपलॉक सीन दिया है


चुम्मा-चुम्मा दे दे ..... 

बीते दिन 12 फरवरी को सिनेमाघरों में रिलीज हुई आदित्य और कैटरीना की फिल्म ‘फितूर’ में दोनों के बीच फिल्माए गए किसिंग सीन ने खूब चर्चा बटोरी। दोनों की कैमिस्ट्री लाजवाब थी।
फिल्म ‘सनम रे’ के लीड एक्टर्स पुलकित सम्राट और यामी गौतम के बीच हॉट किसिंग सीन काफी चर्चा में रहा। ये फिल्म एक लव स्टोरी है जो वैलेंटाइन पर लवर्स के लिए काफी अच्छी है।
रणबीर कपूर-दीपिका पादुकोण फिल्म तमाशा में रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण के बीच कुल 3 किसिंग सीन फिल्माए गए। दोनों के बीच की कैमिस्ट्री वैसी ही लोगों को इतनी पसंद हैं लेकिन इन सींस की तो बात ही कुछ अलग थी।
णवीर सिंह -अनुष्का शर्मा  फिल्म दिल’ धड़कने दो में रणवीर सिंह और अनुष्का शर्मा के बीच की कैमिस्ट्री काफी जबरदस्त हैं। फिल्म में दोनों के बीच फिल्माए गए किसिंग सींस काफी हॉट थे। इससे पहले दोनों एक साथ फिल्म बैंड बाजा बारात में काम कर चुके हैं।

अली फजल -सपना पब्बी  हॉरर थ्रिलर फिल्म खामोशियां में अली फजल और सपना पब्बी के बीच लव मैकिंग सीन ने फिल्म में जान डाल दी थी। दोनों के कार पर किया गया हॉट किसिंग सीन बेहद बोल्ड था।
वरुण धवन -दिव्या दत्ता फिल्म ‘बदलापुर’ में वरुण धवन और दिव्या दत्ता के बीच लिप लॉक सीन ने काफी सुर्खियां बटोरी थी। दरअसल दोनों बीच उम्र का काफी अंतर था जिसकी वजह से ये सीन चर्चा का विषय बन गया था।
गुलशन देवैया– साईं ताम्हणकर एडल्ट फिल्म हंटर में लशन देवैयार साईं ताम्हणकर के बीच किसिंग सीन काफी वाइल्ड था। इसके अलावा फिल्म में दोनों के बीच कई हॉट सीन भी देखने को मिले।
सुशांत सिंह राजपूत – स्वस्तिक मुख़र्जी फिल्म ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी’ में सुशांत सिंह राजपूत और स्वस्तिक मुख़र्जी के बीच किसिंग सीन ने इस साल काफी चर्चा बटोरी। देखने में तो ये सीन काफी अच्छा था लेकिन क्या आप जानतें हैं कि इसे फिल्माने में काफी दिक्कते आई थी। दरअसल फिल्म के निर्देशक दिबाकर को उनका एक किसिंग सीन शूट करना था जिसमें सुशांत के चेहरे पर हैरानी वाले भाव चाहिए थे। लेकिन कई री-टेक्स के बावजूद सुशांत के चेहरे पर वो भाव नहीं आ पा रहे थे।फिर दिबाकर को कुछ सूझा और उन्होंने स्वास्तिका से कहा कि वो सुशांत को बिना बताए अचानक जाकर उन्हें किस कर दें।

रणदीप हूडा – ऋचा चड्ढा काल्पनिक थ्रिलर ड्रामा फिल्म चार्ल्स के ट्रेलर का तो दर्शकों पर कोई ज्यादा असर नहीं हुआ था लेकिन फिल्म के लीड किरदार रणदीप हूडा और ऋचा चड्ढा के किसिंग सीन को काफी पसंद किया गया था।
विक्की कौशल – श्वेता त्रिपाठी मसान इस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक है। इतना ही नहीं इस फिल्म ने कान्स में भी अपनी जगह बनाई। फिल्म में विक्की कौशल और श्वेता त्रिपाठी के बीच किसिंग सीन काफी नेचुरल था।
आयुष्मान खुराना – भूमि पेडणेकर इस साल रिलीज हुई फिल्म दम लगा हईशा ने ये साबित  किसी को आकर्षित करने के लिए साइज जीरो होना जरूरी नहीं है। फिल्म में आयुष्मान खुराना और भूमि पेडणेकर के बीच कैमिस्ट्री काफी क्यूट थी।

आते रहे हैं ऊँट पहाड़ के नीचे………



 ये शोहरत का नशा है या दौलत का जो इन्हें खुद को कानून से ऊपर मानने का भ्रम पैदा करता है? लेकिन कानून भी समय समय पर अपनी ताकत दिखा कर इनका भ्रम तोड़ता रहता है। क़ानून के हाथ बड़े लम्बे हैं भाई। किसी की भी गिरेबान तक पहुँच सकते हैं। 

                              शुरुआत बिग बी से करते हैं जो लोगों के बीच अपनी क्लीन इमेज के कारण भी जाने जाते हैं। बोफोर्स मामला  और खुद को किसान बताकर अवैध रूप से जमीन खरीदने के अलावा अमिताभ बच्चन पर बिना लाइसेंस की बन्दूक लेकर एयरपोर्ट पर आने के आरोप उनपर लग चुके हैं। लेकिन पता नहीं किस वजह से इन मामलों ने ज्यादा तूल नहीं पकड़ा। हो सकता है की बिग बी बड़ी शख्सियत के सामने ये मामले भी बौने पड़ गए। 1993 में संजय दत्त अवैध हथियार रखने के मामले में पुलिस के हत्थे चढ़ गए। मामला संगीन था इसलिए तमाम मशक्कत के बावजूद वो खुद को जेल जाने से नहीं बचा सके। बाद में उन्हें जमानत मिल गयी। परदे के पीछे काफी खेल चलता रहा। पिता सुनील दत्त के राजनैतिक रसूख के बावजूद काम अपना काम करता रहा। अंततः पिछले साल उन्हें सजा सुना दी गयी और आज कल वो जेल के अंदर -बाहर का चक्कर लगा रहे हैं। पिछले साल के अंत में सलमान के ख़ास दोस्त रहे अभिनेता इंदर कुमार को रेप के मामले में पुलिस ने हिरासत में ले लिया। एक महिला की शिकायत पर पुलिस ने उनपर इंडियन पैनल कोड 376 ,324 और 506 जैसी धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इंदर आज भी जेल में ही हैं। इंदर कुमार के पहले अभिनेता शायनी आहूजा मई रेप के आरोप में जेल की हवा खा चुके हैं। साल 2009 में उनकी नौकरानी ने उनपर बलात्कार का मुकदमा दायर किया था जिसके बाद उन्हें सात साल की सजा सुनाई गई थी। लेकिन बाद में नौकरानी अपने बयान से मुकर गयी और शायनी आहूजा बच गए लेकिन उनका करियर पूरी तरह तबाह हो गया। इस आरोप से पहले शायनी बॉलीवुड के उभरते हुए स्टार थे। उनकी फ़िल्में हिट हो रही थी और उनकी डिमांड लगातार बढ़ रही थी। लेकिन रेप का मामला सामने आते ही सारे लोगों ने उनसे किनारा कर लिया। आज शायनी आहूजा गुमनामी में गम हैं। बॉलीवुड के बिगड़ैल नवाब सैफ अली खान हमेशा अपनी कारगुजारियों के कारण विवादों में रहते हैं। सलमान के साथ सैफ भी काले हिरन के शिकार के मामले में सह -अभियुक्त हैं और इसकी सुनवाई चल रही है। पिछले साल उन्होने मुंबई के एक पंचसितारा होटल में एक बिजनेसमेन को धुन डाला। आज भी ये मामला चल रहा है। फिरोज खान के साहबजादे फरदीन खान फिल्मों में तो कोई ख़ास मकाम नहीं बना पाये लेकिन गैरकानूनी कामों की वजह से सुर्ख़ियों में जरूर रहे। साल 2001 में मुंबई पुलिस के नारकोटिक्स विभाग ने उन्हें अवैध रूप से ड्रग्स के सेवन और खरीददारी के आरोप में गिरफ्तार किया था लेकिन बाद में कानूनी खामियों का फायदा उठा कर वो बच निकले।  कॉमेडियन राजपाल यादव भी 5 करोड़ की हेराफेरी के मामले में जेल की हवा खा चुके हैं। इसके अलावा अभिनेता बिंदु दारा सिंह के आईपीएल सट्टेबाजी के बारे में सब जानते ही हैं। इस आरोप में बिंदु भी कानूनी शिकंजे में आ चुके हैं। अभिनेता आदित्य पंचोली भी अपनी माशुका जिया खान सुसाइड मामले में जेल यात्रा कर चुके हैं।

                                                                        क़ानून को मजाक बनाने के खेल में अभिनेत्रियां भी पीछे नहीं रहीं। गैंगस्टर अबु सालेम की माशुका रही मोनिका बेदी साजिश रचने ,धोखधड़ी और गैरकानूनी मामलों में जेल जा चुकी है। बीते जमाने की अभिनेत्री ममता कुलकर्णी पर भी विदेशों में हाल ही में पति  के साथ मिलकर ड्रग्स का धंधा करने का आरोप है।पाकिस्तानी अभिनेत्री वीणा मालिक को एक मामले में पाकिस्तान में 26 साल की सजा सुनाई गयी है। हाल ही में अभिनेत्री श्वेता प्रसाद बासु देह व्यापर के मामले में बंगलौर पुलिस के हत्थे चढ़ गयी थी। प्रियंका चोपड़ा और उनके सेक्रेटरी प्रकश जाजू के बीच चला कानूनी विवाद से तो सब अवगत हैं ही।

सलमान खान तो हमेशा  सुर्ख़ियों में रहते ही हैं हैं। फिल्मों की वजह से नहीं बल्कि अपने गैरकानूनी कारनामों  की वजह से। सुप्रीम कोर्ट ने काले हिरण के शिकार पर निचली अदालत से अभिनेता सलमान खान को मिली पांच साल की कैद की सजा निलंबित रखने के राजस्थान हाईकोर्ट के आदेश को  राजस्थान सरकार की एक अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया। इस मामले में एक निचली अदालत ने उन्हें पांच साल की कैद की सजा सुनाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने सलमान खान के इस केस को वापस हाईकोर्ट भेजा है। अब इस केस की राजस्‍थान हाईकोर्ट में सुनवाई होगी। यानी क़ानून ने सलमान को किसी तरह की रियायत देने से साफ़ इंकार कर दिया। मामले की सुनवाई होगी और संभव है की उन्हें सजा भी हो जाए। बहरहाल आइये डालते हैं उन सितारों पर भी एक नज़र जिन्हें कानून से खिलवाड़ करने और कानून को हाथ में लेने की सजा भुगतनी पडी है। 


 सवाल ये है की वो कौन सी वजह है जो इन सितारों को क़ानून अपने हाथ में लेने की हिम्मत देती है। रील लाइफ में अपनी अदालत लगाकर अपना फैसला कर लेने वाले ये सितारे रियल लाइफ की हकीकत को तो ये सितारे समझते ही होंगे।

Friday, May 27, 2016

खूबसूरती और अभिनय का संगम रति अग्निहोत्री


हिंदी फिल्मों में ख़ूबसूरत अभिनेत्रियों की कमी नहीं। खासकर आज के दौर में जब  बेहतरीन मेक-अप और साजो सामान की बदौलत स्टार्स के औसत चेहरे को भी चांद का टुकड़ा बना दिया जाता हो। लेकिन अगर रति अग्निहोत्री की शुरुआती फिल्मों को देखें तो मेकअप ब्यूटी और नेचुरल ब्यूटी के फर्क को आसानी से समझ जा सकता है। रति अग्निहोत्री आज के कई अभिनेत्रियों की तरह खूबसूरत चेहरे और सपाट एक्टिंग वाली बॉबी डॉल की तरह कभी परदे पर नज़र नहीं आयी बल्कि कई बार उनकी दमदार एक्टिंग ने उनकी खूबसूरती पर दर्शकों का ध्यान अटकने नहीं दिया। इस लिहाज से ये मानने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि रति अग्निहोत्री को अपने दौर की हीरोइनों में सबसे  प्रतिभाशाली  अभिनेत्रियों की कतार में रखा जा सकता है। 

10 दिसंबर 1960 को एक पंजाबी परिवार में जन्मी  रति अग्निहोत्री का बचपन मद्रास में बीता. गुड सेफर्ड कॉंवेंट स्कूल में उनकी पढ़ाई हुई. उन्हें अभिनेत्री बनाने का श्रेय तमिल निर्देशक भारती राजा को जाता है जो उस समय अपनी फिल्म के लिए एक नई हीरोइन की तलाश में थे. सोलह साल की उम्र में रति अग्निहोत्री को उन्होंने अपनी फिल्म पुदिया वरपुकल में मौका दिया. फिल्म सुपरहिट रही और इसने रति अग्निहोत्री को रातों-रात स्टार बना दिया.इसके बाद निर्देशक भारती राजा ने उन्हें अपनी दूसरी फिल्म निरम मराडा पूक्कल में मौका दिया. फिल्म फिर से हिट हुई और रति अग्निहोत्री सिने जगत में सफल अभिनेत्री हो गईं.इसके बाद उन्होंने साउथ की कई फिल्में कीं. सही मायने में हिंदी फिल्मों में उनकी पारी की शुरुआत हुई फिल्म "एक दूजे के लिए से। हिंदी लड़की और दक्षिण भारतीय लड़के के रोमांस पर आधारित इस फिल्म को जबरदस्त कामयाबी मिली और कमल हासन के साथ रति अग्निहोत्री भी बॉलीवुड में  छा गयी। हिंदी फिल्मों में शुरू हुआ इनका सफर कामयाबी के बावजूद जल्द ही हिचकोले खाने लगा। गलत फिल्मों के चुनाव ने उन्हें अभिनेत्रियों की भीड़ में शामिल कर दिया। इससे पहले की रति इस भीड़ में गम हो जाती उन्हें फ़र्ज़ और क़ानून की कामयाबी ने बड़ा सहारा दिया। फिल्म में जीतेन्द्र और हेमा मालिनी की जोड़ी के बावजूद रति के रोल को भरपूर वाहवाही मिली और एक बार फिर वो  बड़े निर्माता-निर्देशको की पसंद बन गयी। इसके बाद रति ने कुली,तवायफ जैसी कई हिट फिल्मों में काम किया। अगर रति अग्निहोत्री की फिल्मों की कामयाबी का ग्राफ देखें तो उनके कद्रदानों को निराशा हो सकती है क्यूंकि उनकी फिल्मों की संख्यां और कामयाबी के औसत में बहुत अंतर है ,इसके बावजूद जितनी विविधतापूर्ण रोल का मौक़ा रति को मिला उतना शायद ही उनकी समकालीन अभिनेत्रियों को मिला होगा। और उन्होने इन अवसरों को भुना कर फिल्म जगत में अपनी अलग पहचान भी बना ली। 

1985 में रति ने तनुज विरमानी नामक एक कारोबारी से शादी कर फिल्मों को अलविदा कह दिया और अपनी गृहस्थी में रम गयी लेकिन 16 साल बाद फिल्म कुछ खट्टी कुछ मीठी के साथ रति ने फिर से वापसी की। इसके बाद उन्होंने यादें, देव, सोचा ना था जैसी फिल्मों में काम किया।उम्र के साथ बॉलीवुड का माहौल भी बदल चूका था। इस बदले माहौल में रति की उपयोगिता भी एक सीमित रोल में ही सिमट कर रह गयी। इस सीमित दायरे के बावजूद उनके लिए ऑफर्स की कभी कमी नहीं रही। उनकी हाल ही में आयी फिल्म "शॉकिन्स"  है इसके अलावा जल्द ही रति कई बैनर्स की फिल्मों में नज़र आएगी। 

जब थप्पड़ की गूँज से बॉलीवुड में आया उबाल


एक्ट्रेस और एंकर गौहर खान को सरेआम पड़े थप्पड़ से पूरा बॉलीवुड सकते में है। वैसे ये पहला ऐसा वाकया  नहीं है जब बॉलीवुड में थप्पड़ों की ये गूँज सुनाई दे रही हो। ऐसे कई सेलिब्रिटीज रहे हैं जो थप्पड़ की गूंज के साथ ही सुर्खियों में छाए। कभी किसी स्टार ने दर्शक को  थप्पड़ जड़ा तो कभी कोई स्टार ऐसे थप्पड़ों का शिकार हुआ, तो कभी स्टार्स आपस में थप्पड़ मार  काण्ड में शामिल हो गए। 

इन दिनों बॉलीवुड के हॉटकेक साबित हो रहे सलमान खान दरअसल थप्पड़ मारने से लेकर थप्पड़ खाने तक के किंग हैं। सलमान के शिकारों में शोमैन सुभाष घई और रणवीर कपूर जैसे सितारे तो शामिल हैं ही कई बार दर्शक भी सलमान की इस सनक का शिकार हो चुके हैं।  अनिल कपूर की बर्थे पार्टी में जाते वक्त सलमान से जब एक फैन गले मिला और उन्हें किस किया तो सलमान अपना आपा खो बैठे और उसे थप्पड़ जड़ दिया था।अक्सर मीडिया वाले सलमान के थप्पड़ों का शिकार होते रहे हैं। परदे का ये एंग्रीयंग मैं अक्सर आपा खो बैठता है उनके हाथ उनका इशारा समझने में देर नहीं लगाते और पलक झपकते ही सामने वाले के गालों पर चस्पा हो जाते हैं। सलमान ये हुनर सुभाष घई से लेकर संजय लीला भंसाली तक पर आजमा चुके हैं। लेकिन एक बार एक वाक्या ऐसा भी आया कि खुद सलमान को थप्पड़ों का ये स्वाद चखना पड़ गया जब दिल्ली में एक निजी पार्टी के दौरान एक लड़की ने सरेआम सलमान पर थप्पड़ों की बौछार कर दी। हैरत की बात ये रही की इतने थप्पड़ों के बावजूद सलमान ने आपा नहीं खोया और चुपचाप वहां से चलते बने।सलमान ने लड़की होने का बेनिफिट थप्पड़ मारने वाली लड़की को दे दिया लेकिन जॉन ने लड़की पर हाथ उठा कर अपनी मर्दानगी दिखाने में देर नहीं की साल 2009 में  जब एक इवेंट के लिए जॉन अब्राहम मैंगलौर पहुंचे थे तो इस दौरान एक्साइटेड होकर एक फी-मेल फैन ने ना सिर्फ जॉन को किस करने और गले मिलने की कोशिश की, बल्कि अपनी आंखों पर यकीन करने के लिए उसने उन्हें नोंच भी लिया। इससे जॉन इतने गुस्साए कि उन्होंने उस लड़की थप्पड़ जड़ दिया।वैसे जॉन ये कारनामा मुंबई में एक फोटोग्राफर की धुनाई कर भी  चुके हैं। 
फिल्मों के लगातार फ्लॉप होने की खीज  गोविंदा ने 2008 में फिल्म ‘हनी है तो मनी है’ के सेट पर एक विजिटर को चांटा मारकर उतारा ।लेकिन ये सेलिब्रेटी चांटा खाकर वो दर्शक चुप नहीं बैठा और उसने गोविंदा पर मुकदमा दायर कर दिया। अभिनेता सैफ अली खान भी होटल ताज में एक फैन को थप्पड़ मार कर कानूनी मुसीबत मोल ले चुके हैं। कई साल पहले ऋतिक भी ऐसे ही एक मामले को लेकर सुर्खियों में थे। दरअसल फिल्म ‘काइट्स’ की लॉन्चिंग से पहले तिक शिर्डी गए थे, जहां एक जर्नलिस्ट उनका लगातार पीछा कर रहा था। इससे परेशान होकर ऋतिक ने आपा खो दिया था और उसे थप्पड़ मार दिया था।शाहरुख़ खान भी आईपीएल के दौरान वानखेड़े स्टेडियम में अपना ये जौहर दिखा  चुके हैं। 

फैंस को थप्पड़ मारने में अभिनेत्रियां भी पीछे नहीं।  2010 में  एक्ट्रेस जेनेलिया डिसूजा एक फिल्म के प्रमोशन के लिए विजयवाड़ा गई थीं। वहां एक फैन ने उनके करीब आने की कोशिश की थी, इसपर जेनेलिया ने उस फैन को जबरदस्त थप्पड़ रसीद कर दिया था। आमतौर पर कूल रहने वालीं जेनेलिया तब अपना आपा खो बैठी थीं।राखी सावंत तो खैर अपने बॉयफ्रेंड तक को थप्पड़ का स्वाद चखा चुकी है। लोकसभा चुनाव के दौरान अक्सर छिड़ने के लिए मशहूर हो चुकी नगमा ने चुनाव प्रचार के दौरान नजदीक आने की कोशिश कर रहे एक फैंस को चांटा रसीद कर दिया था। जयाप्रदा द्वारा अपने को-स्टार दिलीप ताहिल को शूटिंग के दौरान मारा गया थप्पड़ और विदेशों में एक स्टेज शो के दौरान शाहरुख़ खान द्वारा हनी सिंह को मारे गये थप्पड़ की गूँज हालाँकि दूर तक सुनाई नहीं दी। बहरहाल बॉलीवुड के लिए थप्पड़ इस मायने में ज्यादा मुफीद हैं कि वो चाहे थप्पड़ मारें या खाएं  उनका सुर्ख़ियों में आना तय है। 

Sunday, May 22, 2016

मुंबई रात की बाँहों में ………



न्यूआर्क और पेरिस के बाद मुंबई की रातें मशहूर रही हैं। कहा जाता है कि जब पूरा इंडिया सोता है तब मुंबई की रातें जवां होती है। दिन की रौशनी में मुंबई आदमियों से भरे मशीनों के शहर की तरह नज़र आती  है। जहाँ हर किसी को कहीं - न -कहीं पहुँचने की जबरदस्त जल्दबाजी है। लेकिन शाम उतरते ही शहर के सीने पर पसरती चकाचौध के साथ ही मुंबई मशीनी चोला उतारकर ख्वाहिशों ,जज़्बातों और सपनों की दौड़ में शामिल हो जाती है। मुंबई सपनों का भी शहर है। हर किसी के सपने हैं और हर सपने की कीमत भी है। किसी का सपना ज़िंदगी को जीवंत बनाने का है तो कोई रातो-रात दौलत के ढेर पर बैठने का ख्वाब पाले हुए हैं। इनमें से अधिकाँश ख़्वाबों को मंज़िल रात में ही मिलती है। कम -से -कम आंकड़े तो यही साबित करते हैं।बहरहाल  हालिया राजनैतिक सरगर्मी मुंबई की नाईट लाइफ को फिर से जीवंत बनाने  की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। लेकिन बॉलीवुड ने कई दशक पहले ही मुंबई के नाइट लाइफ की तस्वीर को पेश करना शुरू कर दिया था। फिल्मों में मुंबई एक रात में ही अपने पूरे चरित्र की पूरी खूबियों और खामियों के साथ पेश होती रही है। आइए डालते हैं उन फिल्मों पर एक नज़र जिसने मुंबई में होने वाले रात की कारगुजारियों को बेलौस और बेबाक तरीके से सेल्युलाइड पर उतारकर मुंबई को समझने और महसूस करने का एक नया नजरिया पेश किया। 

                                  1968 में आई ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म मुंबई रात की बाँहों में "में पहली बार मुंबई शहर का स्याह चेहरा सामने आया। इस सस्पेंस थ्रिल्लर फिल्म में रात के अँधेरे में घटित होने वाले अपराधों को पेश किया गया था। इस कहानी के द्वारा अब्बास साहब ने समाजवाद के प्रति बढ़ते मोहभंग और उससे उपजी नयी परिस्थियों को कहने का प्रयास किया था। सीधे तौर पर फिल्म का मुंबई के चरित्र से कोई सम्बन्ध नहीं था लेकिन मुंबई को एक मानक के रूप में गढ़ते हुए कहानी का ताना-बाना बुना गया था। जागते रहो, अनोखी रात और माय फ्रेंड पिंटो में एक रात के दौरान दुनिया अपनी हकीकत में खुलती है। रात के अँधेरे में किस तरह इंसान अपने असली रूप में प्रकट होता है, ये इन फिल्मों में नजर आता है। असल में इन तीनों फिल्मों का नजरिया बहुत हद तक दार्शनिक टच लिए हुए है। राज कपूर की जागते रहो और संजीव कुमार अभिनीत अनोखी रात का दर्शन बहुत कुछ एक ही सा है।1988 में मीरा नायर ने मुंबई को एक नए नजरिये से पेश किया। इस फिल्म में समाज में बढ़ती आर्थिक असामनता से उपजे परिवेश को बच्चों के माध्यम से काफी सशक्त तरीके से पेश किया गया था। हालांकि इस फिल्म में पूरी मुंबई का मिजाज उभर नहीं पाया लेकिन सलाम बॉम्बे ने भविष्य के मुंबई की तस्वीर तो पेश कर ही दिया। मुंबई की रातों के पूरे सच को किसी एक फिल्म में समेट पाना संभव भी नहीं है। क्यूंकि एक ही रात में मुंबई कई चोला बदल लेती है। इस नजरिये से देखें तो साल २००४ में आई अभय देओल की फिल्म एक चालीस की लास्ट लोकल मुंबई के नाईट लाइफ के काफी करीब नज़र आती है। बारों की रौनक ,क्राइम ,ह्त्या,देह व्यापार ,स्मगलिंग -ये सब भी मुंबई की रातों का ही सच है। इस फिल्म में इस विषय को काफी धारदार तरीके से कहानी का हिस्सा बनाया गया है। इसी कड़ी में मधुर भंडारकर की चांदनी बार ,कैजाद गुस्ताद की मुंबई बॉयज आदि जैसी फिल्मों को भी रखा जा सकता है। अजय देवगन की वंस अपन ए टाइम इन मुंबई ,हंसल मेहता की सिटी लाइट जैसी फ़िल्में भी मुंबई के रातों की हकीकत बयान करती है। राज कपूर की जागते रहो और संजीव कुमार अभिनीत अनोखी रात का दर्शन बहुत कुछ एक ही सा है। प्रतीक बब्बर अभिनीत माय फ्रेंड पिंटो एक मनोरंजक फिल्म है, लेकिन इसमें भी रात के अँधेरे में खुलती दुनियादारी दिखाना ही निर्देशक का लक्ष्य रहा है। 

 अनुराग बासु की फिल्म लाइफ इन मेट्रो। …। में भी मुंबई रातों के सच को संजीदगी से पेश किया गया। चार किरदारों की समानांतर चलती चार कहानियों के द्वारा बासु ने मुम्बईया रातों के नब्ज़ को टटोलने की भी कोशिश की ये अलग बात है कि इसके केंद्र में आपसी रिश्ते थे। स्लमडॉग मिलेनियर में डेनी बॉयल ने मुंबई की रातों का काफी भयावह पहलु पेश किया था। इस फिल्म के बाद डेनी ने मुंबई की नाइटलाइफ़ पर एक फिल्म बनाने का एलान किया था लेकिन अब तक इस पर काम शुरू नहीं हुआ है। लेडीज बारों पर ढोबले की छापेमारी और मॉरल पॉलिशिंग से प्रेरित होकर परेश मेहता ने "डी सैटर्डे नाईट " से एक फिल्म बनायी है जो 21 फरवरी को रिलीज होने जा रही है। इस फिल्म में बारों में होने वाले जवां मुहब्बत और जिस्मफरोशी के खिलाफ कानूनी पेंच को दर्शकों के सामने लाया जाएगा। 

Saturday, May 21, 2016

हर मौसम में गरम हैं धरम

कसरती शरीर,कसी हुई कद-काठी बावजूद इसके धर्मेन्द्र अपने दौर के हैंडसम अभिनेताओं में गिने गए। एक्शन फिल्मों के लिए मुफीद कद-काठी के बावजूद धर्मेन्द्र को रोमांटिक हीरो के तौर पर ज्यादा सफलता मिली। यानी एक्शन हो या रोमांस -धर्मेन्द्र हर रोल और हर दौर दौर में हिट होने के साथ साथ फिट रहे। माचोमैन जैसी छवि के बावजूद धर्मेन्द्र  रोमांटिक फ़िल्में बनाने वाले निर्देशकों की पहली पसंद रहे। 

8 दिसम्बर, 1935 को साहनेवाल, पंजाब में जन्मे धर्मेन्द्र को फिल्मों का शौक दिलीप कुमार की फ़िल्में देख कर लगा /पारिवारिक पृष्ठभूमि ऐसी नहीं थी कि वो अभिनेता बनने की सोचते लेकिन पिता की मर्जी के बगैर उन्होने एक फ़िल्मी पत्रिका में छपे विज्ञापन के मुताबिक़ अपनी तस्वीरें मुंबई भेजी और चुन लिए गए। इस तरह हिंदी फिल्मों में उनकी शुरुआत हुई।  1961 में उन्हें निर्माता-निर्देशक अर्जुन हिंगोरानी ने उन्हें फिल्म "दिल भी तेरा हम भी तेरे "में पहला ब्रेक दिया। इस फिल्म में धर्मेन्द्र ने एक रोमांटिक हीरो का किरदार निभाया था जिसे काफी पसंद किया गया। 1960 से लेकर 1967 तक धर्मेन्द्र ने कई रोमांटिक फ़िल्में की और नूतन,माला सिन्हा से लेकर मीणा कुमारी ,आशा पारेख और नंदा तक सभी बड़ी अभिनेत्रियों के साथ काम किया।इस दौर की फिल्मों में बंदिनी ,आयी मिलन की बेला ,दिल ने फिर याद किया और काजल जैसी सफल फ़िल्में धर्मेन्द्र के खाते में दर्ज़ हुई। 1975 में शोले के रिलीज होने से पहले तक धर्मेन्द्र रोमांटिक हीरो के तौर पर स्थापित हो चुके  रमेश सिप्पी की शोले ने उनकी इमेज को पूरी तरह बदल कर रख दिया। शोले ने धर्मेन्द्र के साथ साथ हिंदी फिल्मों का भी कायाकल्प करके रख दिया। इस फिल्म के साथ ही धर्मेन्द्र  करियर के नए युग की शुरुआत हुई। 


1976 से 1984 के बीच धर्मेन्द्र ने कई बड़ी एक्शन फिल्मों में काम किया इनमे धर्मवीर ,बगावत ,चरस ,राजतिलक और आजाद जैसी सफल फ़िल्में शामिल हैं। इसके साथ ही अमिताभ बच्चान की एंग्रीयंगमैन की इमेज के साथ एक अलग किस्म की एक्शन फिल्मों की धारा भी विकसित हो रही थी जिसकी वजह से धर्मेन्द्र की हीमैन मार्का एक्शन फिल्मों की धारा धीमी पड़ने लगी। और धीरे-धीरे धर्मेन्द्र का फ़िल्मी करियर भी ढलान पर आने लगा। इसके बावजूद वो इंडस्ट्री के बड़े निर्देशकों की पसंद बने रहे। अनिल शर्मा की फिल्म "हुकूमत" से धर्मेन्द्र की तीसरी पारी शुरू हुई। हुकूमत ,इलाका ,तहलका जैसी फिल्मों से धर्मेन्द्र एक ख़ास किस की फिल्मों में टाइप्ड होते नज़र आये। जिसे बॉलीवुड में दोयम दर्जे की फ़िल्में भी कहा जाता है। बहरहाल फ़िल्में जिस भी दर्जे की रही हो उनके निर्मातों ने धर्मेन्द्र के बूते खूब पैसे बटोरे। उम्र उनपर भी हावी होने लगी थी। वक़्त की नजाकत को  भांपते हुए उन्होने काम की रफ़्तार को काम कर दिया और बेटे सनी को फिल्म बेताब से बॉलीवुड में लांच कर फिल्ममेकिंग के क्षेत्र में उत्तर आये।आगे चलकर उन्होने दुसरे बेटे बॉबी देओल को भी फिल्म बरसात से बॉलीवुड में एंट्री दिलवाई। बॉलीवुड में दो बेटों की मौजूदगी के बावजूद धर्मेन्द्र को लेकर दर्शकों का क्रेज काम नहीं हुआ। और 84 साल की उम्र में भी वो फिल्मों में सक्रीय हैं। पिछले दिनों उनकी "अपने और यमला पगला दीवाना जैसी फिल्मों को दर्शकों ने हाथो-हाथ लिया जिससे ये साबित होता है कि धरम जी हर उम्र के दर्शकों के चहेते हैं।   
धर्मेन्द्र को बॉलीवुड में उनके रोमांटिक मिजाज के लिए जाना जाता है।कसरती काया के अंदर एक नाजुक सा दिल -धर्मेन्द्र के पूरे व्यक्तित्व की इससे बेहतर परिभाषा नहीं हो सकती।  मीणा कुमारी से लेकर अनीता राज,नूतन आदि तक उनकी करीबियां काफी सुर्ख़ियों में रही।   हेमा मालिनी के साथ उनका प्रेम-प्रसंग और विवाह तो उस समय बॉलीवुड की बड़ी सुर्ख़ियों में शुमार रही।  जब धर्मेद्र ने हेमा मालिनी के साथ सात फेरे लिए, तब तक दोनों एक साथ एक दर्जन से भी अधिक फिल्मों में काम कर चुके थे. उस समय धर्मेद्र न केवल विवाहित थे, बल्कि उनकी बेटी की भी शादी हो चुकी थी. बड़े बेटे सनी देओल फिल्मों में आने की तैयारी कर रहे थे. ऐसे में हेमा मालिनी से शादी करने का फैसला करना जरूर बड़ा मुश्किल रहा होगा, लेकिन दोनों ने यह फैसला कर ही लिया. फिल्म शोले के दौरान हेमा मालिनी और धर्मेन्द्र के प्रेम के किस्सों को खुद फिल्मकारों ने भी सच बताया है. फिल्मी पर्दे पर यह जोड़ी चाहे कितनी भी बेहतरीन दिखे पर असल जिंदगी में दोनों अलग-अलग रहते हैं. जहां हेमा मालिनी अपनी बेटियों के साथ रहती हैं वहीं धर्मेन्द्र सन्नी और बॉबी देओल के साथ रहते हैं.
हेमा मालिनी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा धरम जी को राजनीति में ले आयी। साल 2004 में भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर धर्मेंद्र ने राजस्थान के बीकानेर निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव जीता था. लेकिन संसद के किसी भी सत्र में शामिल ना होने और अपने निर्वाचन क्षेत्र से पूरी तरह गायब रहने के कारण धर्मेंद्र को कई आरोपों का सामना करना पड़ा.राजनीति उन्हें रास नहीं आयी और उन्होने फिर से बॉलीवुड का रुख किया। बहरहाल धर्मेन्द्र इन दिनों भी काम कर ही रहे हैं और उनके चाहनेवालों को यकीन है वो आगे भी अपने गरम धरम को परदे पर देखते रहेंगे। आमीन। 

कोई हसीना अर्जुन को भी तो देखे।

अर्जुन कपूर की शक्ल ओ सूरत जैसी भी हो अाखिर गर्लफ्रेंड तो उसे भी चाहिए भाई। अर्जुन कपूर बड़ी मुश्किल में हैं। 2 स्टेट्स के बाद उनकी फीमेल फैन फॉलोइंग में ज़बर्दस्त इज़ाफा हुआ है। अब उनकी आनेवाली फिल्म "तेवर" भी धमाल मचाने को तैयार है। लेकिन अर्जुन इसलिए परेशान नहीं है। उनकी परेशानी का कारण हैं लड़कियां। फिलहाल अर्जुन की मानें तो उन्होंने अब तक किसी को डेट नहीं किया है। वो सिंगल हैं और किसी के साथ घुलने मिलने को तैयार हैं। पर लड़कियां हैं कि उन्हें भाव ही नहीं देती। आखिर क्या है अर्जुन की पसंद?अपनी पसंद के बारे में बात करते हुए अर्जुन का कहना है  कि मुझे ऐसी लड़की चाहिए जो मुझे और मेरे काम को समझे। मैं नौ से पांच की नौकरी नहीं करता। उसे मेरे मज़ाक भी समझने पड़ेंगे क्योंकि मैं मज़ाक बहुत करता हुं। तो बोलो भाई लोग। है कोई ऐसी लड़की दिमाग में ?वैसे अर्जुन को अपनी तलाश के लिए बॉलीवुड से बहार निकलना पड़ेगा वर्ना बॉलीवुड में तो ऐसी लड़की मिलने से रही।

ये रजनी का स्टाइल है........


बॉलीवुड में हर अभिनेता किसी न किसी पूर्ववर्ती अभिनेता के स्टाइल  को अपनाता ही है। अमिताभ बच्चन से लेकर रणवीर कपूर तक के अभिनय में पुराने कलाकारों की कॉपी देखी जा सकती है। लेकिन रजनीकांत एकमात्र ऐसे एक्टर हैं जिनकी अपनी एक खास शैली है जो खुद उनके द्वारा ही विकसित की गयी है और मजे की बात ये है कि उनके स्टाइल की कॉपी असंभव है.उनके चलने की अदा हो या फिर होठों को चबा-चबा कर संवाद बोलने का अंदाज़ हो या फिर सिगरेट को हवा में उछलकर पिस्तौल से सुलगाने का स्टाइल -ये सब रजनीकांत को स्टाइल को सबसे अलहदा बनाती है। रजनीकांत का निजी व्यक्तित्व और स्टाइल दोनों ही लार्जर दैन लाइफ बन चुके हैं और हीरो की इससे बेहतर परिभाषा और क्या हो सकती है.
12 दिसंबर, 1950 को बेंगलुरू में जन्मे  शिवाजी राव गायकवाड़ उर्फ़ रजनीकांत की कामयाबी का सफर काफी मुश्किलों भरा रहा  है।एक मामूली से बस कंडक्टर से शुरू हुआ उनका जिंदगी का सफर उत्तर-चढाव से भरपूर रहा।  रजनीकांत की मुलाकात एक नाटक के मंचन के दौरान फिल्म निर्देशक के. बालाचंदर से हुई थी, जिन्होंने उनके समक्ष उनकी तमिल फिल्म में अभिनय करने का प्रस्ताव रखा। इस तरह उनके करियर की शुरुआत बालाचंदर निर्देशित तमिल फिल्म 'अपूर्वा रागंगाल' (1975) से हुई, जिसमें वह खलनायक बने। यह भूमिका यूं तो छोटी थी, लेकिन इसने उन्हें आगे और भूमिकाएं दिलाने में मदद की। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था।करियर की शुरुआत में तमिल फिल्मों में खलनायक की भूमिकाएं निभाने के बाद वह धीरे-धीरे एक स्थापित अभिनेता की तरह उभरे। तेलुगू फिल्म 'छिलाकाम्मा चेप्पिनडी' में उन्हें हीरो बनने का मौक़ा मिला  उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कुछ वर्षो में ही रजनीकांत तमिल सिनेमा के कामयाब  सितारे बन गए.1982 तक रजनीकांत तमिल फिल्मों के सुपर स्टार बन चुके थे और उनकी कामयाबी  बॉलीवुड में भी दस्तक देने लगी थी। 1983 में निर्देशक टी रामाराव उन्हें फिल्म "अँधा क़ानून " के जरिये हिंदी फिल्मों में लेकर आये। इस फिल्म में उनके साथ अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी की जोड़ी भी मौजूद थी। अमिताभ बच्चन उस समय के सुपर स्टार थे और उनके सामने हर कलाकार  फ़िल्मी परदे पर बौना नज़र आने लगता था लेकिन अपनी छोटी सी भूमिका  रजनीकांत ने बिग बी अपने होने का एहसास करवा दिया। हीरोगिरी अमिताभ के हिस्से आयी और तालियां रजनी बटोर ले गए। फिल्म में  बिग बी साथ रजनी की जोड़ी को पसंद किया गया और आगे निर्देशकों ने इस जोड़ी को गिरफ्तार ,हम जैसी फिल्मों में सफलता के साथ आजमाया। लेकिन जल्द ही रजनी बॉलीवुड की भेड़चाल का शिकार हो गया और मेरी अदालत,जॉन जॉनी जनार्दन ,क़ानून का क़र्ज़ ,फूल बने अंगारे,भगवान दादा ,इन्साफ कौन करेगा और खून का क़र्ज़  जैसी फिल्मों में खुद को दोहराते नज़र आये। हिंदी फिल्मों में रजनीकांत की कामयाबी उनकी अलग शैली के कारण थी जो बॉलीवुड के प्रचलित ढर्रे से बिलकुल अलग थी जो दर्शकों को रोमांचित करने के साथ साथ एंटरटेन भी करती थी। दोहराव के बावजूद दर्शक तो राजनीमार्का स्टाइल  नहीं ऊबे लेकिन खुद रजनीकांत को ये एकरसता रास नहीं आयी और उन्होने हिंदी फिल्मों को अलविदा कह फिर से साउथ का रुख कर  लिया। 
                 तमिल फिल्मों ने अपने इस हीरो की वापसी का इस्तकबाल इतनी गर्मजोशी से किया की खुद रजनीकांत  भी हैरान हो गए। 2002 में फिल्म बाबा से तमिल फिल्मों में रजनीकांत की ग्रैंड वापसी हुई। इससे बाद रजनीकांत ने शिवाजी,बॉस शंकर जैसी एक से एक कामयाब फिल्मों की झड़ी लगा दी। रजनीकांत के प्रति दर्शकों की दीवानगी का आलम ये है कि उनकी फ़िल्में रिलीज होने से पहले ही सुपर हिट हो जाती है। दर्शक रात से ही टिकट के लिए लाइन में खड़े हो जाते हैं। लोग उनकी पूजा करते हैं। उनकी फिल्मों में पोस्टर का दुग्धभिषेक करते हैं। ये कामयाबी शायद ही किसी और को नसीब हुई हो। उनकी कामयाबी ने उन्हें रजनीकांत से रजनी सर बना दिया। लोग उनका नाम भी अदब से लेते हैं। रजनी सर की इस कामयाबी में उनकी फिल्मों में  साथ उनके निजी व्यवहार का भी हाथ है। उनकी छवि  शांत,मितभाषी और शोहरत से बेपरवाह शख्स की है। नेचुरल होने के बावजूद ये भी उनकी एक अदा है जिसके करोड़ो लोगों के साथ खुद देश के प्रधानमंत्री भी मुरीद हैं।  

इल्मी नहीं फ़िल्मी है ये पत्रकारिता .....

इल्मी नहीं फ़िल्मी है ये पत्रकारिता .....

                                                           जो दिखेगा वही  बिकेगा .....खबर से लेकर एंकर तक मीडिया में यही फार्मूला हिट है.. .गरीबी ,भुखमरी भी बिक सकती हैं,बशर्ते आप पैकेजिंग  कर सकें .. ,लेकिन ये काबिलियत हर किसी में नहीं होती .हर कोई कमाल खान नहीं होता ,जो चुने हुए सर्द शब्दों और उसे बोलने के जर्द अंदाज़ से तस्वीरो में अहसास भर दे..हर कोई रवीश कुमार भी नहीं होता जिनकी  आँखें  खबरों की गहराई में उतर   कर देखनेवालो को झकझोर दे ..खबरे विजुअल से ही असरदार बन सकती हैं ..अब ये ये धारणा टूटनी ही चाहिए .....क्राईम ,क्रिकेट  और सिनेमा की बिकाऊ तिकड़ी में फ़िलहाल सिने पत्रकारिता ऐसी चीज है,जो वाकई अपने होने से वितृष्णा पैदा कर रही हैं ..सिनेमा से जुडी जो खबरे नफीस अंदाज़ में पेश की जाती हैं,वो तस्वीर का एक अलग पहलू  है,लेकिन इस पहलू  में काफी  आपा-धापी मची हुई है  ...
                                                                            डेस्क से चिपके महारथी  शायद आज की हकीकत से रु-ब -रु नहीं होंगे क्यूंकि उन्होंने ऐसे समय में करियर  शुरू किया था ...जब वो सिनेमावालो के लिए किसी देवदूत से कम नहीं होते थे ..बाकायदा पाहून की तरह उनका स्वागत किया जाता था ..उन्हें फ़ील्ड में बड़े ऊँचे दर्जे के प्राणी माना  जाता था ..कई तो ऐसे थे कि उनकी बातों से ही  इंडस्ट्रीवालों  का दिल भारी होने लगता था.. विक्रम सिंह से खालिद मोहम्मद  तक  ये परपरा अपनी आन के साथ चलती  रही..शायद इसकी वजह  ये भी रही हो कि इन्हें  बाय्सकलथीवस  या फेनिली या फिर समानांतर  सिनेमा जैसे शब्दों के मायने देखने के लिए शब्दकोष कि जरूरत नहीं पड़ती हो ,लेकिन आज के  फिल्मी पत्रकारों के सामने इन शब्दों को खड़ा कर दो तो बेचारा  गश  खाकर गिर पड़ेंगा ..कई तो ऐसे गिरे कि बीट ही बदल दिया ..बीट बदली  जा सकती है..क्यूंकि इस बीट में हर कोई  फीटहोने लायक नहीं होता  ,फिर भी हैं  क्यूंकि उन्हें कहीं -न -कहीं होना है .. इसलिए इसी में   घुसा दिए गये ..अब भला इसमें उनका क्या दोष ? वाकई दोष उनका नहीं .दोष तो उनका भी नहीं हैं ..जिन्होंने उन्हें सिनेमाई  पत्रकारिता का  परचम थमाया है .क्या करें .. बाज़ार अब यही चाहता है ..,बाज़ार ,विचार से नहीं चलता ..
                                                                             बहरहाल टी .आर .पी.
चाहिए तो फ़िल्मी ख़बरें भी चलानी ही होंगी..स्टार न्यूज़ ने इन ख़बरों को खबर फ़िल्मी है  बना कर थोड़ी ईमानदारी जरूर बरती..खबर फ़िल्मी है यानी इसे फ़िल्मी मिजाज़ के साथ ही देखो और समझो..यानी ये खबर फिल्म की नहीं बल्कि फिल्माई है ..ड्रामा  है बिलकुल फिल्म की तरह है ...उन्होने इमानदारी से बता दिया कि ये खबर की माँ- बहन है ..देखना है तो देखो  या फिर अपना सर धुनो...ऐसी ही ईमानदारी लाइव इंडिया भी दिखाता रहा ..उनका woll था फिल्लम - विल्लम और क्या ..?यानी ये खबर इल्मी नहीं फ़िल्मी है ..इन्हें सीरयसली मत लो ..फिर भी दर्शक है कि मानता नहीं .....ये मजाक की खबर है ख़बरों का मजाक ...?

                                                                        आप यहाँ आये किसलिए..?ये एक ऐसा सवाल है जिसका सामना जहाँ-तहां बिन बुलाये मेहमान की तरह घुस  आने वाले पत्रकारों को अक्सर करना पड़ता है ..कुकुरमुत्ते की तरह उगते चैनलों ने खबरनवीसों को इतना सता बना दिया कि कई बार तो ये बुलाये ही जाते हैं धकियाने के लिए ..कई बार तो बाकायदा जूते खाने की नौबत भी आ जाती है ..फिर भी सब्र की इन्तेहाँ तो देखिये जुतियाआ हुआ आदमी ऐसे बाहर निकलता है जैसे अभी अभी ओबामा के साथ डिनर करके निकला हो ...खैर ये लानत मलामत उन्हें उससे तो बेहतर ही लगती है जो इन ख़बरों को न लाने के कारण न्यूज़ रूम में भुगतनी पड़ती..बहरहाल ..फ़िल्मी पत्रकारों को इस गाने के मुखड़े को बार बार जीना पड़ता है ..किसी इवेंट में दरवाजे पर दरबान की तरह खड़ा  पी आर . भेदती नज़रों से ऐसे घूरेगा कि आदमी को अपने होने पर भी शर्म आने लगे ....ऐसी स्थिति में बदहवास सा नज़र आने लगते हैं ये खबरनवीस ..कभी इन्हीं पत्रकारों की खुशामद में जुटे ये मीडिया मैनेजर आज इनके भाग्यविधाता हैं ....यही तय करेंगे पूछे जाने वाले सवाल ..यही तय करेंगे जवाब ...पत्रकारों का काम होगा बूम का भार उठा कर आना और जाना ...वो तो यही सोचकर धन्य हो गया कि आखिर हम बुलाये तो गए .....फालतू की प्रेस कांफ्रेंस में भी बड़े मुश्तैद होते हैं मीडिया मैनेजर ..इस मुश्तैदी के बावजूद कई पत्रकार फ़िल्मी हो  ही जाते हैं ....किसी इवेंट्स पर ये पत्रकार सेलीब्रेटी पर ऐसे टूटते हैं जैसे कोई शिकारी अपने शिकार पर ..आज के खबरनवीस हैं जो अपनी मासूम सी शक्ल के बावजूद नफीस नहीं हैं..ये ख़बरों पर झपटते हैं..बिल्कुल गिद्ध के अंदाज़ में..क्या बात चाँद पल में ही क्या हो जाए..ये सितारों के कपड़ों से लेकर नेलपालिश तक छानबीन करते हैं ..बूम ऐसे पकड़ते हैं जैसे मुहं में ही ठूंस देंगे ...कई बार तो ये सितारों के सीने पर ही चढ़ बैठते हैं ....ऐसी गर्मी.. ऐसा तनाव मोर्चे पर भी क्या होता होगा..कई बार अपनी नाक और कैमरा तुडवा लेने के बावजूद ये अपने स्टाइल से तस से मस होने को तैयार नहीं ..ये फ़िल्मी पत्रकार हैं ..बूमबाजी की इस रेस के पीछे का दबाव क्या है ये तो इन्हें रेस का घोडा बनानेवाले ही जानें ..मीडिया में मची टी आर पी की होड़ को देखते हुए ऐसा तो लगता नहीं कि ये हालात जल्दी बदलेंगे ..

इल्मी नहीं फ़िल्मी है ये पत्रकारिता .....


                                                           जो दिखेगा वही  बिकेगा .....खबर से लेकर एंकर तक मीडिया में यही फार्मूला हिट है.. .गरीबी ,भुखमरी भी बिक सकती हैं,बशर्ते आप पैकेजिंग  कर सकें .. ,लेकिन ये काबिलियत हर किसी में नहीं होती .हर कोई कमाल खान नहीं होता ,जो चुने हुए सर्द शब्दों और उसे बोलने के जर्द अंदाज़ से तस्वीरो में अहसास भर दे..हर कोई रवीश कुमार भी नहीं होता जिनकी  आँखें  खबरों की गहराई में उतर   कर देखनेवालो को झकझोर दे ..खबरे विजुअल से ही असरदार बन सकती हैं ..अब ये ये धारणा टूटनी ही चाहिए .....क्राईम ,क्रिकेट  और सिनेमा की बिकाऊ तिकड़ी में फ़िलहाल सिने पत्रकारिता ऐसी चीज है,जो वाकई अपने होने से वितृष्णा पैदा कर रही हैं ..सिनेमा से जुडी जो खबरे नफीस अंदाज़ में पेश की जाती हैं,वो तस्वीर का एक अलग पहलू  है,लेकिन इस पहलू  में काफी  आपा-धापी मची हुई है  ...
                                                                            डेस्क से चिपके महारथी  शायद आज की हकीकत से रु-ब -रु नहीं होंगे क्यूंकि उन्होंने ऐसे समय में करियर  शुरू किया था ...जब वो सिनेमावालो के लिए किसी देवदूत से कम नहीं होते थे ..बाकायदा पाहून की तरह उनका स्वागत किया जाता था ..उन्हें फ़ील्ड में बड़े ऊँचे दर्जे के प्राणी माना  जाता था ..कई तो ऐसे थे कि उनकी बातों से ही  इंडस्ट्रीवालों  का दिल भारी होने लगता था.. विक्रम सिंह से खालिद मोहम्मद  तक  ये परपरा अपनी आन के साथ चलती  रही..शायद इसकी वजह  ये भी रही हो कि इन्हें  बाय्सकलथीवस  या फेनिली या फिर समानांतर  सिनेमा जैसे शब्दों के मायने देखने के लिए शब्दकोष कि जरूरत नहीं पड़ती हो ,लेकिन आज के  फिल्मी पत्रकारों के सामने इन शब्दों को खड़ा कर दो तो बेचारा  गश  खाकर गिर पड़ेंगा ..कई तो ऐसे गिरे कि बीट ही बदल दिया ..बीट बदली  जा सकती है..क्यूंकि इस बीट में हर कोई  फीटहोने लायक नहीं होता  ,फिर भी हैं  क्यूंकि उन्हें कहीं -न -कहीं होना है .. इसलिए इसी में   घुसा दिए गये ..अब भला इसमें उनका क्या दोष ? वाकई दोष उनका नहीं .दोष तो उनका भी नहीं हैं ..जिन्होंने उन्हें सिनेमाई  पत्रकारिता का  परचम थमाया है .क्या करें .. बाज़ार अब यही चाहता है ..,बाज़ार ,विचार से नहीं चलता ..
                                                                             बहरहाल टी .आर .पी.
चाहिए तो फ़िल्मी ख़बरें भी चलानी ही होंगी..स्टार न्यूज़ ने इन ख़बरों को खबर फ़िल्मी है  बना कर थोड़ी ईमानदारी जरूर बरती..खबर फ़िल्मी है यानी इसे फ़िल्मी मिजाज़ के साथ ही देखो और समझो..यानी ये खबर फिल्म की नहीं बल्कि फिल्माई है ..ड्रामा  है बिलकुल फिल्म की तरह है ...उन्होने इमानदारी से बता दिया कि ये खबर की माँ- बहन है ..देखना है तो देखो  या फिर अपना सर धुनो...ऐसी ही ईमानदारी लाइव इंडिया भी दिखाता रहा ..उनका woll था फिल्लम - विल्लम और क्या ..?यानी ये खबर इल्मी नहीं फ़िल्मी है ..इन्हें सीरयसली मत लो ..फिर भी दर्शक है कि मानता नहीं .....ये मजाक की खबर है ख़बरों का मजाक ...?

                                                                        आप यहाँ आये किसलिए..?ये एक ऐसा सवाल है जिसका सामना जहाँ-तहां बिन बुलाये मेहमान की तरह घुस  आने वाले पत्रकारों को अक्सर करना पड़ता है ..कुकुरमुत्ते की तरह उगते चैनलों ने खबरनवीसों को इतना सता बना दिया कि कई बार तो ये बुलाये ही जाते हैं धकियाने के लिए ..कई बार तो बाकायदा जूते खाने की नौबत भी आ जाती है ..फिर भी सब्र की इन्तेहाँ तो देखिये जुतियाआ हुआ आदमी ऐसे बाहर निकलता है जैसे अभी अभी ओबामा के साथ डिनर करके निकला हो ...खैर ये लानत मलामत उन्हें उससे तो बेहतर ही लगती है जो इन ख़बरों को न लाने के कारण न्यूज़ रूम में भुगतनी पड़ती..बहरहाल ..फ़िल्मी पत्रकारों को इस गाने के मुखड़े को बार बार जीना पड़ता है ..किसी इवेंट में दरवाजे पर दरबान की तरह खड़ा  पी आर . भेदती नज़रों से ऐसे घूरेगा कि आदमी को अपने होने पर भी शर्म आने लगे ....ऐसी स्थिति में बदहवास सा नज़र आने लगते हैं ये खबरनवीस ..कभी इन्हीं पत्रकारों की खुशामद में जुटे ये मीडिया मैनेजर आज इनके भाग्यविधाता हैं ....यही तय करेंगे पूछे जाने वाले सवाल ..यही तय करेंगे जवाब ...पत्रकारों का काम होगा बूम का भार उठा कर आना और जाना ...वो तो यही सोचकर धन्य हो गया कि आखिर हम बुलाये तो गए .....फालतू की प्रेस कांफ्रेंस में भी बड़े मुश्तैद होते हैं मीडिया मैनेजर ..इस मुश्तैदी के बावजूद कई पत्रकार फ़िल्मी हो  ही जाते हैं ....किसी इवेंट्स पर ये पत्रकार सेलीब्रेटी पर ऐसे टूटते हैं जैसे कोई शिकारी अपने शिकार पर ..आज के खबरनवीस हैं जो अपनी मासूम सी शक्ल के बावजूद नफीस नहीं हैं..ये ख़बरों पर झपटते हैं..बिल्कुल गिद्ध के अंदाज़ में..क्या बात चाँद पल में ही क्या हो जाए..ये सितारों के कपड़ों से लेकर नेलपालिश तक छानबीन करते हैं ..बूम ऐसे पकड़ते हैं जैसे मुहं में ही ठूंस देंगे ...कई बार तो ये सितारों के सीने पर ही चढ़ बैठते हैं ....ऐसी गर्मी.. ऐसा तनाव मोर्चे पर भी क्या होता होगा..कई बार अपनी नाक और कैमरा तुडवा लेने के बावजूद ये अपने स्टाइल से तस से मस होने को तैयार नहीं ..ये फ़िल्मी पत्रकार हैं ..बूमबाजी की इस रेस के पीछे का दबाव क्या है ये तो इन्हें रेस का घोडा बनानेवाले ही जानें ..मीडिया में मची टी आर पी की होड़ को देखते हुए ऐसा तो लगता नहीं कि ये हालात जल्दी बदलेंगे ..

Friday, May 20, 2016

हॉलीवुड का पहला बॉलीवुड अभिनेता शशिकपूर


आज अगर बॉलीवुड के किसी अभिनेता या अभिनेत्री को हॉलीवुड की फिल्मों में काम करने का मौक़ा मिलता है उसे उनकी बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित किया जाता है। भले ही वो रोल छोटा या महत्वहीन ही क्यों न हो लेकिन शशि कपूर एकमात्र ऐसे अभिनेता हैं, जिन्हें अंग्रेजी फिल्मों में लगातार काम करने का मौका मिला था। जेम्स आइवरी-इस्माइल मर्चेण्ट की जोड़ी की तीसरा कोण शशि कपूर थे। द हाउस होल्डर , शेक्सपीयरवाला  बॉम्बे टॉकी  तथा हीट एंड डस्ट आदि ऐसी फ़िल्में हैं जो  विदेशों के साथ भारत में भी सराही गई.शुद्ध रूप से कमर्शियल सिनेमा के पैरोकार माने जाने वाले कपूर खानदान से ताल्लुक रखने के बावजूद शशिकपूर ने फिल्मों के आलावा थियेटर को जीवित रखने में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। जन्मदिन के मौके पर आइये डालते हैं उनके फ़िल्मी सफर पर एक नज़र 
शशि कपूर का जन्म 18 मार्च 1938 को बलबीर राज कपूर के रूप में हुआ। वह पृथ्वीराज कपूर के तीसरे बेटे थे।1944 में शशि ने अपना करियर पिताजी के पृथ्वी थिएटर के नाटक शकुंतला से आरम्भ किया था। राज कपूर की पहली फिल्म 'आग' तथा तीसरी फिल्म आवारा  में उन्होंने राज कपूर के बचपन की भूमिकाएं निभाई थीं। 1957 में जॉफरी केण्डल की टूरिंग नाटक कम्पनी को ज्वाइन किया और शेक्सपीयर के नाटकों में विभिन्ना रोल अदा करने लगे। इसी दौरान जॉफरी केण्डल की युवा बिटिया जेनिफर को उन्होंने नजदीक से देखा और वे प्यार की आंच में तपकर शादी के मण्डप तक जा पहुंचे। कपूर खानदान में इस तरह की यह पहली शादी थी। हिन्दी सिनेमा के आंगन में शशि की एंट्री यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित फिल्म धर्मपुत्र से हुई। यह फिल्म आजादी के पहले की दशा पर आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास पर आधारित थी। धर्मपुत्र के बाद चहारदीवारी और प्रेमपात्र जैसी असफल फिल्मों में काम किया। इसके बाद उनकी मेंहंदी लगी मेरे हाथ, प्रेमपत्र, मोहब्बत इसको कहते हैं, नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे, जुआरी,कन्यादान, हसीना मान जाएगी जैसी फ़िल्में आयी लेकिन सारी नाकामयाब रही सही मायने शशिकपूर की कामयाबी का सफर शुरू होता है 1965 में बनी  सूरज प्रकाश निर्देशित फिल्म जब-जब फूल खिले से।'एक था गुल' गीत के द्वारा कही गई रोमांटिक टेल ने सिल्वर गोल्डन जुबिली मनाई। इस फिल्म में उनकी नायिका थी नंदा। इस फिल्म के साथ ये जोड़ी भी हिट हो गयी इस फिल्म के बाद उनके पास फिल्मों के अम्बार लग गए। सत्तर के दशक में शशि कपूर के पास 150 फिल्मों के अनुबंध थो। वह एक दिन में तीन या चार फिल्मों की शूटिंग में पहुंच जाते थे। यह देख उनके बड़े भाई राज कपूर ने उन्हें टेक्सी तक कहा था कि जब बुलाओ तक आ जाती है और मीटर डाउन रहता है। ऐसी तल्ख टिप्पणी का एक कारण यह भी था कि शशि फिल्म 'सत्यम शिवम सुन्दरम' फिल्म तक के लिए समय नहीं निकाल पा रहे थे। लेकिन उनकी यही व्यस्तता उनके लिए अभिशाप साबित हुई।  जरूरत से ज्यादा फिल्मों में काम करने के कारण शशि ने अभिनय की गुणवत्ता खो दी। ऐसी कई महत्वहीन फिल्में उन्होंने की जो उनकी फिल्मोग्राफी को कमजोर करती है।

अमिताभ का साथ : गोल्डन टच

अमिताभ बच्चन के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी और दर्शकों द्वारा पसंद की गई। दीवार कभी-कभी  त्रिशूल  काला पत्थर , ईमान धरम सुहाग , दो और दो पांच  शान , नमक हलाल और सिलसिला जैसी यादगार फिल्में उन्होंने दी है।कैरियर के ढलान पर शशि अपने होम प्रोडक्शन शेक्सपीयरवाला के द्वारा फिल्म निर्माण में उतरे और  अलग तरह का परचम फहराने की कोशिश की। देश के दिग्गज फिल्मकारों के सहयोग से उन्होंने श्याम बेनेगल के माध्यम से जूनून तथा कलयुग  अपर्णा सेन के निर्देशन में 36 चौरंगी लेन  गोविंद निहलानी से विजेता  तथा गिरीश कर्नाड से उत्सव  निर्देशित कराकर अलग प्रकार का सिनेमा रचने की कोशिश में करोड़ों रुपये गंवाए, लेकिन ये फिल्में आज भी मील का पत्थर मानी जाती हैं। भारत-सोवियत सहयोग तथा अपने निर्देशन में उनकी फिल्म अजूबा शशि के जीवन की ऐसी बड़ी गलती है कि इसने उन्हें परदे के पीछे पहुंचाकर करोड़ों के घाटे में उतार दिया।साल 1971 में पृथ्वीराज कपूर के निधन के बाद शशि कपूर ने पत्नी जेनिफर के साथ मिलकर पृथ्वी थियेटर की जिम्मेदारी संभाल ली। आज भी उनकी बेटी संजना कपूर थियेटर को लेकर कपूर खानदान के जूनून को आगे बढ़ा रही है।  इस्माइल मर्चेंट की भोपाल में बनी फिल्म इन कस्टडी मुहाफिज के बाद उन्होने फिल्मों में काम करना बंद कर दिया। हाल ही में उन्हें सांस की तकलीफ के कारण अस्पताल में भर्ती करवाया गया। आजकल वो घर पर ही स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएं।