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Tuesday, December 11, 2012

दिलीप कुमार और उनके प्रेम तराने

दिलीप कुमार और उनके प्रेम तराने 
दिलीप कुमार यूं तो अपनी लाइफ में विवादों से दूर रहने में ही भलाई समझते थे मगर इनकी लव लाइफ को लेकर कई किस्से हमेशा गॉसिप गलियारों में छाए रहे। 11 अक्टूबर 1966 को दिलीप साहब ने सायरा बानो से शादी कर सबको चौंका दिया था। वह उनसे उम्र में 22 साल छोटी थीं।
सायरा से शादी करने के बाद और पहले भी दिलीप साहब की जिंदगी में कुछ हसीनाएं थीं।आज उनके जन्मदिन के मौके पर आइये नजर डालते हैं उनके फेमस लव अफेयर्स के बारे में:
 कामिनी कौशल: दिलीप कुमार की प्रेमिका के रूप में कामिनी कौशल का नाम लिया जाता है।इन दोनों ने चार फिल्मों में साथ काम किया था।इनमें 'शहीद' के अलावा अन्य तीन फिल्में 'नदिया के पार', 'शबनम', और 'आरजू' थीं। बड़े परदे पर दोनों की जबरदस्त रोमांटिक केमिस्ट्री देखकर ही इनके बीच उठ रही इश्क की चिंगारियों का अंदाजा सबको हो जाता था। मगर इस लव स्टोरी में विलेन बनकर सामने आये कामिनी कौशल के भाई जो कि आर्मी में थे। बताया जाता है कि उन्होंने दिलीप कुमार को एक बार बंदूक दिखाकर कामिनी से दूर रहने की सलाह दी थी। कामिनी भी परिवार के दबाव में दिलीप कुमार का साथ नहीं दे सकती थीं क्योंकि वह पहले से ही शादीशुदा थीं।न चाहते हुए भी उन्हें अपनी स्वर्गवासी बहन की इच्छा के अनुसार अपने जीजा ब्रह्मस्वरूप सूद से विवाह करना पड़ा था। बहन की मौत के बाद कामिनी को उनके बच्चे की परवरिश करने थी इसलिए जिम्मेदारियों के खातिर उन्होंने दिलीप साहब का दिल तोड़ दिया और हमेशा के लिए उनसे दूर हो गईं।
 मधुबाला: मधुबाला और दिलीप कुमार के इश्क के बारे में तो सब जानते हैं। दिलीप कुमार मधुबाला को बेइंतहा मोहब्बत करते थे।कामिनी कौशल के बाद उन्हें मधुबाला में अपने सपनों की रानी नजर आई।मधुबाला के साथ भी दिलीप साहब ने चार फिल्मों में काम किया।
तराना, संगदिल, अमर और मुगल-ए-आजम में मधुबाला और दिलीप कुमार की जोड़ी नजर आई।दोनों का इश्क फिल्मों में काम करने के   चढ़ रहा था मगर इनकी नजदीकियां मधुबाला के पिता अताउल्लाह खान को रास नहीं आयीं।उन्होंने इस रिश्ते का कदा विरोध किया और मधुबाला को दिलीप कुमार के साथ नया दौर में काम नहीं करने दिया।फिल्म साइन कर कांट्रेक्ट से मुकरने पर नया दौर के निर्देशक और निर्माता बी आर चोपड़ा ने मधुबाला पर
केस कर दिया। इस प्रकरण में न्याय की खातिर दिलीप कुमार चोपड़ा के पक्ष में खड़े रहे। मधुबाला को भी यह बात नागवार गुजरी और दोनों का रिश्ता हमेशा के लिए टूट गया।

 अस्मा: सायरा बानो से शादी के बाद दिलीप कुमार की निजी जिंदगी में मानो जैसा भूचाल गया। उनके बारे में एक सनसनीखेज खबर यह सामने आई कि सायरा बानो के रहते हुए उन्होंने 1982 में एक पाकिस्तानी मूल की महिला अस्मा से गुपचुप शादी कर ली।कई गॉसिप मैगजीनों में दिलीप कुमार और अस्मा की तस्वीर भी छापी।अफवाहें यह भी थीं कि समय रहते दिलीप साहब ने अस्मा से तलाक लेकर छुटकारा पा लिया और वापस सायरा बानो के पास आ गए,लेकिन तीन साल तक वे झूठ बोलते रहे कि उनकी कोई दूसरी शादी नहीं हुई है.ऐसा माना जाता है कि दिलीप साहब के दिल में पिता कहलाने की एक ललक थी, जिसे वे शायद अस्मा के जरिये पूरी करना चाहते थे.

 

बॉलिवुड के असली महानायक – दिलीप कुमार

बॉलिवुड के असली महानायक – दिलीप कुमार

हिन्दी फिल्मों में अगर बिग बी यानि अमिताभ बच्चन को सदी का महानायक माना जाता है तो इस महानायक के महानायक को भी कभी भुलाया नहीं जा सकता. हिन्दी फिल्मों में कालजयी किरदार निभा कर दिलीप कुमार ने मात्र 54 फिल्मों के अपने कॅरियर में वह मुकाम हासिल किया जो अच्छे-अच्छे अभिनेता अपनी पूरे कॅरियर में हासिल नहीं कर पाते. दिलीप कुमार हिन्दी सिनेमा जगत के कई बड़े सितारों के लिए रोल मॉडल रहे हैं.




Dilip Kumar दिलीप कुमार की प्रोफाइल

दिलीप कुमार का जन्म 11 दिसम्बर, 1922 को वर्तमान पाकिस्तान के पेशावर शहर में हुआ था. उनके बचपन का नाम मोहम्मद युसूफ खान (Muhammad Yusuf Khan) था. उनके पिता का नाम लाला गुलाम सरवर(Lala Ghulam Sarwar) था जो फल बेचकर अपने परिवार का पेल पालते थे.



विभाजन के दौरान उनका परिवार मुंबई आकर बस गया. उनका शुरुआती जीवन तंगहाली में ही गुजरा. पिता के व्यापार में घाटा होने के कारण वह पुणे की एक कैंटीन में काम करने लगे थे. यहीं देविका रानी की पहली नजर उन पर पड़ी और उन्होंने दिलीप कुमार को अभिनेता बना दिया. उन्होंने ही युसूफ खान की जगह नया नाम दिलीप कुमार रखा. पच्चीस वर्ष की उम्र में दिलीप कुमार देश के नंबर वन अभिनेता के रूप में स्थापित हो गए थे.



Dilip Kumarदिलीप कुमार का कॅरियर

दिलीप कुमार ने फिल्म “ज्वार भाटा” से अपने फिल्मी कॅरियर की शुरूआत की. हालांकि यह फिल्म सफल नहीं रही. उनकी पहली हिट फिल्म “जुगनू”( Jugnu) थी. 1947 में रिलीज हुई इस फिल्म ने बॉलिवुड में दिलीप कुमार को हिट फिल्मों के स्टार की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया.



1949 में फिल्म “अंदाज” में दिलीप कुमार ने पहली बार राजकपूर के साथ काम किया. यह फिल्म एक हिट साबित हुई. दीदार (1951) और देवदास(1955) जैसी फिल्मों में गंभीर भूमिकाओं के लिए मशहूर होने के कारण उन्हें ट्रेजिडी किंग कहा जाने लगा. मुगले-ए-आज़म (1960) में उन्होंने मुगल राजकुमार जहांगीर की भूमिका निभाई.



Dilip Kumar in Ram and Shyam“राम और श्याम” में दिलीप कुमार द्वारा निभाया गया डबल रोल आज भी लोगों को गुदगुदाने में सफल साबित होता है. 1970, 1980 और 1990 के दशक में उन्होंने कम फिल्मों में काम किया. इस समय की उनकी प्रमुख फिल्में थीं: क्रांति (1981), विधाता (1982), दुनिया (1984), कर्मा (1986), इज्जतदार(1990) और सौदागर(1991). 1998 में बनी फिल्म “किला” उनकी आखिरी फिल्म थी.



अपने बेहतरीन फिल्मी कॅरियर के बावजूद भी दिलीप कुमार ने मात्र 54 फिल्मों में ही काम किया जिसकी वजह वह फिल्मों में बेहतरीन प्रदर्शन को बनाए रखना बताते हैं.



एक समय ऐसा था जब बॉलिवुड में देवानंद, राजकपूर और दिलीप कुमार की त्रिमूर्ति को सफलता की कसौटी माना जाता था.



दिलीप कुमार की लव लाइफ

Dilip Kumarदिलीप कुमार और मधुबाला: बॉलिवुड में अपनी फिल्मों से भी ज्यादा दिलीप कुमार ऑफ स्क्रीन लव अफेयर के लिए भी चर्चा में रहते थे. दिलीप कुमार की प्रेमिकाओं में पहला नाम आप मधुबाला को मान सकते हैं. दिलीप कुमार और मधुबाला के प्यार के बारे में सब जानते हैं. फिल्मी दुनिया में यह जोड़ा अपने प्यार और तकरार के लिए खासा चर्चित रहा है. मधुबाला-दिलीप कुमार ने एक साथ सिर्फ चार फिल्में की. इनमें ‘मुगल-ए-आजम’ (1960) उनकी अंतिम फिल्म है, जिसे लोग इन दोनों की प्रेम कहानी के रूप में ही देखना पसंद करते हैं. मधुबाला भी दिलीप कुमार की तरह भावुक हृदय थीं. दोनों को साथ-साथ काम करते करते प्यार हो गया और दिलीप साहब तो उनसे शादी करने पर ही आतुर हो गए पर परिवार की नाराज गी की वजह से ऐसा हो ना सका.



Dilip-kumarदिलीप कुमार और वैजयंती माला: दिलीप कुमार के साथ वैजयंती माला ने अद्भुत सफल ऑन-स्क्रीन जोड़ी बनाई और उनके साथ ‘नया दौर’, ‘गंगा-जमुना’ और ‘मधुमती’ जैसी हिट फिल्मों में दिखीं. बॉलिवुड के ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार ने बतौर निर्माता अपनी पहली फिल्म ‘गंगा जमुना’ में अपने अपोजिट वैजयंती माला को साइन किया. पहली ही फिल्म में वैजयंती माला का जादू दिलीप कुमार के मन मस्तिष्क पर काफी गहराई से पड़ा और यही वजह थी कि वह हर निर्माता से उन्हें ही अपनी फिल्म की नायिका बनाने के बारे में बोलते थे.



Actor Dilip Kumarदिलीप कुमार और सायरा बानो: दिलीप कुमार ने 1966 में ब्यूटी क्वीन सायरा बानो से शादी की थी. जिस समय दिलीप कुमार और सायरा बानो की शादी हुई थी उस समय सायरा बानो 22 और दिलीप साहब 44 साल के थे. आज यह जोड़ी बॉलिवुड की सबसे प्रसिद्ध जोड़ियों में से एक है.



दिलीप कुमार को दिए गए पुरस्कार

सबसे अधिक अवार्ड जीतने वाले दिलीप कुमार का नाम गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्डस में भी दर्ज है. अपने जीवनकाल में दिलीप कुमार कुल आठ बार फिल्म फेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार पा चुके हैं और यह एक कीर्तिमान है जिसे अभी तक तोड़ा नहीं जा सका.



पहली बार उन्हें 1953 में फिल्म ‘दाग’ के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार‍ दिया गया था. इसके अलावा आजाद (1955), देवदास (1956), नया दौर (1957), कोहिनूर (1960), लीडर (1964) तथा राम-श्याम (1967) और शक्ति (1982) के लिए भी उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फिल्मफेयर पुरस्कार‍ से नवाजा गया.



1993 में उन्हें फिल्मफेयर लाइफटाइम अचिवमेंट अवार्ड से भी नवाजा गया था.



actor-dilip-kumar-gets-standing-ovation-at-national-awardsभारत सरकार ने उन्हें 1991 में पद्‍मभूषण की उपाधि से नवाजा था और 1995 में फिल्म का सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान दादा साहब फाल्के अवॉर्डभी प्रदान किया. पाकिस्तान सरकार ने भी उन्हें 1997 में निशान-ए-इम्तियाज (Nishan-e-Imtiaz,) से नवाजा था, जो पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है.



फिल्मों के साथ-साथ ट्रेजड़ी किंग दिलीप कुमार राज्यसभा के सांसद भी रह चुके हैं. आज भी दिलीप कुमार बॉलिवुड के अहम पुरस्कार और अवार्ड शो में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं. अपने काम के प्रति उनकी लगन को देखकर ही लोग उन्हें बॉलिवुड का असली महानायक और परफेक्शनिस्ट मानते हैं.

 

दिलीप कुमार का ऑटोग्राफ लेने में बिग बी को लगे 46 साल



महान अभिनेता दिलीप कुमार को हिंदी सिनेमा के ' ट्रैजिडी किंग ' कहा जाता है और बॉलिवुड शहंशाह अमिताभ बच्चन को उनका ऑटोग्राफ  लेने के लिए 46 बरस तक लंबा इंतजार करना पड़ा था।


बिग बी ने दिलीप साहब को पहली बार 1960 में मुंबई में देखा था। तब वह अपने पिता के साथ मुंबई गए थे, जिन्हें किसी कवि सम्मेलन में भाग लेना था। उनके मेजबान उन्हें मुंबई के कुछ प्रसिद्ध स्थल दिखाने ले गए। उस समय अमिताभ के लिए मुंबई सपनों का शहर था। 

अमिताभ ने मुंबई से लंदन जाते हुए रास्ते में लिखे अपने ब्लाग में बताया है कि उस समय साउथ बांबे के एक प्रसिद्ध रेस्त्रां में वह अपने परिवार के साथ खानपान में जुटे थे कि दिलीप साहब अंदर आए और अपने कुछ मित्रों से बात करने लगे। उस समय तक दिलीप साहब हिंदी सिनेमा के सुपरस्टार बन चुके थे
अमिताभ दिलीप कुमार का ऑटग्राफ लेने के लिए इतने उतावले थे कि रेस्त्रां से निकले और भागे भागे पास की एक स्टेशनरी दुकान से ऑटग्राफ बुक खरीद लाए।

हांफते हुए वह रेस्त्रां के अंदर घुसे और डरते हुए दिलीप साहब के पास पहुंचे। उन्होंने विनम्रता के साथ अपनी ऑटग्राफ बुक उनकी ओर बढ़ा दी। दिलीप साहब ने इस बच्चे को नहीं देखा। अमिताभ ने अपना अनुरोध दोहराया, लेकिन दिलीप साहब के कानों तक उनकी बात फिर भी नहीं पहुंची। ब्लॉग में अमिताभ लिखते हैं, दिलीप साहब ने न तो मुझे और न ही मेरी बुक की ओर देखा। कुछ ही देर में वह वहां से चले गए।

निराश अमिताभ उनके पीछे-पीछे बढ़े, लेकिन कुछ कदम चलकर वापस अपनी सीट पर आकर बैठ गए। उस समय परिवार के लोगों ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि हो सकता है दिलीप साहब ने उन्हें नहीं देखा हो। यह दिलीप साहब के साथ उनकी पहली मुलाकात थी।

धीरे-धीरे समय गुजरता गया। अमिताभ हिंदी सिनेमा के नए सुपरस्टार बन गए और दिलीप साहब का दौर ढलने लगा। इस बीच अमिताभ को दिलीप साहब के साथ एक फिल्म में काम करने का मौका मिला।

रेस्त्रां की घटना के बाद अमिताभ ने दिल्ली में तीन मूर्ति भवन में दिलीप साहब को देखा जहां तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कलाकारों के सम्मान में पार्टी दी थी। उस समय बच्चन परिवार के नेहरू परिवार से बेहद घनिष्ठ संबंध थे और बच्चन परिवार को भी आमंत्रित किया गया था। यहां अमिताभ ने राज कपूर, देव आनंद तथा दिलीप साहब को एक साथ पहली बार देखा था।

अमिताभ लिखते हैं कि समय बीत गया। 2006 में वडाला के आईमैक्स में मेरी फिल्म 'ब्लैक' का प्रीमियर था। दिलीप साहब की करीबी मित्र रानी मुखर्जी ने उन्हें प्रीमियर पर आमंत्रित किया था। फिल्म समाप्ति के बाद मैंने पाया कि दिलीप साहब थिएटर के बाहर मेरे आने का इंतजार कर रहे थे। जब मैं उनके पास गया, तो उन्होंने अपने हाथ मेरी ओर बढ़ाए और मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए। मेरी आंखों में देखते हुए वह कुछ पल बिना कुछ बोले खड़े रहे। दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा। लेकिन उसके दो दिन बाद मुझे दिलीप साहब का एक खत मिला, जिसमें मेरे ऐक्टिंग की काफी तारीफ की हुई थी। इसी खत में नीचे दिलीप कुमार के दस्तखत थे। इस तरह दिलीप साहब के ऑटग्राफ पाने के लिए मुझे 46 बरस लंबा इंतजार करना पड़ा।

 




 

Monday, December 3, 2012

हर फिक्र को धुएं में उड़ाते चला गए देव साहब

हर फिक्र को धुएं में उड़ाते  चला गए देव साहब 
हिन्दी फिल्मों के जाने-माने सदाबहार अभिनेता देवदत्त पिशोरीमल आनंद उर्फ देव आनंद ने अपने रूमानी अंदाज से सिने प्रेमियो के दिलो पर राज किया। देव आनंद का जन्म पंजाब के गुरदासपुर के एक गांव में 26 सिंतबर 1923 को एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। बचपन से ही उनका झुकाव अपने पिता के पेशे वकालत की ओरन होकर अभिनय की ओर था। उन्होने अंग्रेजी साहित्य में अपनी स्नातक की शिक्षा 1942 में लाहौर के मशहूर गवर्नमेट कॉलेज से पूरी की। इस कॉलेज ने फिल्म और साहित्य जगत को बलराज साहनी, चेतन आनंद, बी.आर.चोपड़ा और खुशवंत सिंह जैसे शख्सियतें दी है। देव आनंद को अपनी पहली नौकरी मिलिट्री सेन्सर ऑफिस में एक लिपिक के तौर पर मिली जहां उन्हें सैनिकों द्वारा लिखी चिट्ठियों को उनके परिवार के लोगों को पढ़ कर सुनाना पड़ता था। इस काम के लिए देव आनंद को 165 रूपये मासिक वेतन के रूप में मिला करता था जिसमें से 45 रूपये वह अपने परिवार के खर्च के लिए भेज दिया करते थे लगभग एक वर्ष तक मिलिट्री सेन्सर में नौकरी करने के बाद वह अपने बड़े भाई चेतन आनंद के पास मुंबई आ गए। चेतन आनंद उस समय भारतीय जन नाटय संघ इप्टा से जुड़े हुए थे। उन्होंने देव आनंद को भी अपने साथ इप्टा में शामिल कर लिया। 

वर्ष 1946 में बतौर अभिनेता देव आनंद ने फिल्म हम एक है से अपने सिने कैरियर की शुरूआत की लेकिन इस फिल्म के असफल होने से वह दर्शकों के बीच अपनी पहचान नहीं बना सके। इस फिल्म के निर्माण के दौरान प्रभात स्टूडियो मे उनकी मुलाकात गुरूदत्त से हुई जो उस समय फिल्मों में कोरियोग्राफर के रूप मे अपनी पहचान बनाना चाह रहे थे। वर्ष 1948 में प्रदर्शित फिल्म जिद्दी देव आनंद के फिल्मी कैरियर की पहली हिट फिल्म साबित हुई। इस फिल्म की कामयाबी के बाद उन्होंने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रख दिया और नवकेतन बैनर की स्थापना की। नवकेतन के बैनर तले उन्होंने वर्ष 1950 में अपनी पहली फिल्म अफसर का निर्माण किया जिसके निर्देशन की जिम्मेवारी उन्होंने अपने बड़े भाई चेतन आनंद को सौपी। इस फिल्म के लिए उन्होंने उस जमाने की जानी मानी अभिनेत्री सुरैया का चयन किया जबकि अभिनेता के रूप में देव आनंद खुद ही थे यह फिल्म चली नही। इसके बाद उनका ध्यान गुरूदत्त को किए गए वायदे की तरफ गया। उन्होंने अपनी अगली फिल्म बाजी के निर्देशन की जिम्मेदारी गुरूदत्त को सौप दी। बाजी फिल्म की सफलता के बाद देव आनंद फिल्म इंडस्ट्री में एक अच्छे अभिनेता के रूप में शुमार होने लगे। इस बीच देव आनंद ने मुनीमजी, दुश्मन, कालाबाजार, सी.आई.डी, पेइंग गेस्ट, गैम्बलर, तेरे घर के सामने, काला पानी जैसी कई सफल फिल्र्मो में अपनी अदाकारी का जौहर प्रस्तुत किया। 
 इसके बाद देव आनंद ने गुरूदत्त के निर्देशन में वर्ष 1952 में फिल्म जाल में भी अभिनय किया। इसफिल्म के निर्देशन के बाद गुरूदत्त ने यह फैसला किया कि वह केवल अपनी निर्मित फिल्मों का निर्देशन करेंगे। बाद में देव आनंद ने अपनी निर्मित फिल्मों के निर्देशन की जिम्मेदारी अपने छोटे भाई विजय आनंद को सौंप दी। विजय आनंद ने देव आनंद की कई फिल्र्मो का निर्देशन किया। इन फिल्मो में कालाबाजार, तेरे घर के सामने, गाइड, तेरे मेरे सपने, छुपा रूस्तम प्रमुख है। फिल्म अफसर के निर्माण के दौरान देव आनंद का झुकाव फिल्म अभिनेत्री सुरैया की ओर हो गया था। 

एक गाने की शूटिंग के दौरान देव आनंद और सुरैया की नाव पानी में पलट गई जिसमे उन्होने सुरैया को डूबने से बचाया। इसके बाद सुरैया देव आनंद से बेइंतहा मोहब्बत करने लगी लेकिन सुरैया की दादी की इजाजत न मिलने पर यह जोड़ी परवान नही चढ़ सकी। वर्ष 1954 में देव आनंद ने उस जमाने की मशहूर अभिनेत्री कल्पना कार्तिक से शादी कर ली। 
 देव आनंद प्रख्यात उपन्यासकार आर.के.नारायण से काफी प्रभावित रहा करते थे और उनके उपन्यास गाइड पर फिल्म बनाना चाहते थे। आर.के.नारायणन की स्वीकृति के बाद देव आनंद ने हॉलीवुड के सहयोग से हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में फिल्म गाइड का निर्माण किया जो देव आनंद के सिने कैरियर की पहली रंगीन फिल्म थी। इस फिल्म के लिए देव आनंद को उनके जबर्दस्त अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार भी दिया गया। वर्ष 1970 में फिल्म प्रेम पुजारी के साथ देव आनंद ने निर्देशन के क्षेत्र में भी कदम रख दिया। हालांकि यह फिल्म बॉ1स ऑफिस पर बुरी तरह से नकार दी गई बावजूद इसके उन्होंने हिम्मत नही हारी। इसके बाद वर्ष 1971 में फिल्म हरे रामा हरे कृष्णा का भी निर्देशन किया जिसकी कामयाबी के बाद उन्होंने अपनी कई फिल्र्मो का निर्देशन भी किया। इन फिल्मों में हीरा पन्ना, देश परदेस, लूटमार, स्वामी दादा, सच्चे का बोलबाला, अव्वल नंबर जैसी फिल्में शामिल है।
देव आनंद ने कई फिल्मों की पटकथा भी लिखी। जिसमें वर्ष 1952 मे प्रदर्शित फिल्म आंधियां के अलावा हरे रामा हरे कृष्णा, हम नौजवान, अव्वल नंबर प्यार का तराना, गैंगस्टर, मैं सोलह बरस की, सेन्सर आदि फिल्में शामिल है।
देव आनंद को अपने अभिनय के लिए दो बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। देव आनंद को सबसे पहला फिल्म फेयर पुरस्कार वर्ष 1950 में प्रदर्शित फिल्म कालापानी के लिए दिया गया। इसके बाद वर्ष 1965 में भी देव आनंद फिल्म गाइड के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किए गए। वर्ष 2001 में देव आनंद को भारत सरकार की ओर से पद्मभूषण सम्मान प्राप्त हुआ। वर्ष 2002 में उनके द्वारा हिन्दी सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अपने जीवन के 80 से भी ज्यादा वसंत देख चुके देव आनंद अब हमारे बीच नही हैं लेकिन सिनेप्रेमियों के दिलो में वह हमेशा जिंदा रहेंगे।
जीवन की अंतिम सांस तक अपनी फिल्मी परियोजनाओं के साथ सक्त्रिय रहे देव आनंद बॉलीवुड के वास्तविक पीटर पैन (सदाबहार) थे। उन्होंने अपने गीत मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया के दर्शन को सचमुच अपने जीवन में उतारा।
सदाबहार फिल्म अभिनेता देव आनंद ने हिंदी फिल्म जगत में 1951 की बाजी से लेकर 2011 की चार्जशीट तक छह दशकों का लम्बा सफर तय किया। उम्र को पीछे छोड़ देने वाले देव आनंद ने हिंदी सिनेमा को श्वेत-श्याम युग से तकनीकी रंगीन युग में परिवर्तित होते देखा, और अपने पीछे एक ऐसी अनोखी विरासत छोड़ी जो सिनेमाई कार्यो से कही आगे निकल चुकी है।
देव आनंद ने अपनी हालिया रिलीज फिल्म चार्जशीट तक अभिनय, निर्देशन, निर्माण सब कुछ किया और उस समय वह 88 के हो चुके थे और हमेशा की तरह सक्त्रिय थे। देव आनंद ने सौम्य, सज्जन व्यक्ति के चरित्र को परदे पर चरितार्थ किया, और नलिनी जयवंत से लेकर जीनत अमान तक, कई पीढ़ी की अभिनेत्रियों के साथ रोमांटिक भूमिका निभाई।
देव आनंद ने मुनीमजी, सीआईडी और हम दोनों जैसी फिल्मों के जरिए श्वेत-श्याम युग पर राज किया और उसके बाद ज्यूल थीफ और जॉनी मेरा नाम जैसी क्लासिक फिल्मों के साथ रंगीन युग में प्रवेश किया। उन्होंने जीनत और टीना मुनीम जैसी कई मशहूर अभिनेत्रियों के करियर को शुरुआती आधार मुहैया कराया। देव आनंद ने 110 से अधिक फिल्मों में नायक की भूमिका निभाई।
2011 में आई उनकी फिल्म चार्जशीट उनकी अंतिम फिल्म साबित हुई। इस फिल्म को उन्होंने निर्देशित किया था और इसमें अभिनय भी किया था। देव आनंद की आत्मकथा रोमांसिंग विद लाइफ सितम्बर 2007 में जारी हुई थी। अन्य लोगों की तरह देव आनंद ने भी सफलता से पहले काफी संघर्ष किया। उन्होंने 160 रुपये के वेतन पर चर्चगेट में एक सैन्य सेंसर कार्यालय में काम किया।
भाग्य ने साथ दिया और जल्द ही उन्हें प्रभात टाकीज की तरफ से हम एक हैं (1946) में एक अभिनेता के रूप में काम करने का प्रस्ताव मिला। पुणे में फिल्म की शूटिंग के दौरान देव आनंद की मुलाकात गुरु दत्त से हुई, और वहीं दोनों की मित्रता हो गई। देव आनंद के करियर में दो वर्षो बाद महत्वपूर्ण मोड़ तब आया, जब अशोक कुमार ने बाम्बे टाकीज की हिट फिल्म जिद्दी (1948) में काम करने का बड़ा मौका दिया। इस फिल्म के बाद अशोक कुमार देव आनंद को लगातार फिल्मों में हीरो बनाते रहे।
देव आनंद ने 1949 में खुद की निर्माण कम्पनी, नवकेतन की शुरुआत की। पूर्व के वादे के मुताबिक उन्होंने अपने बैनर की पहली फिल्म बाजी (1951) के निर्देशन के लिए गुरु दत्त से कहा। इस फिल्म ने देव आनंद को रातों रात स्टार बना दिया, और वह जीवन के अंतिम सांस तक, छह दशकों बाद भी स्टार बने रहे।
देव आनंद ने एक अन्य नायिका कल्पना कार्तिक से शादी की। देव आनंद को हिंदी सिनेमा में योगदान के लिए दादा साहेब फाल्के पुरस्कार और पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। जीवन के प्रति उनकी दिलचस्पी हमेशा याद की जाएगी। उनकेपरिवार में पत्नी, एक पुत्र और एक पुत्री है।